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________________ 14 मोक्षमार्ग की पूर्णता __वैसे जीव द्रव्य भी स्वभाव से शुद्ध ही है, अशुद्धता तो पर के लक्ष्य व निमित्त से पर्याय में उत्पन्न हुआ तात्कालिक क्षणिक व नष्ट होने योग्य विकारीभाव/विभाव हैं - ऐसे स्वरूप के श्रद्धान के कारण ही अर्थात् स्वभाव के लक्ष्य से विभाव को हेय मानकर विकार का विनाश कर पर्याय को शुद्ध करने का पुरुषार्थ किया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा क्रमांक-१० में द्रव्य का लक्षण बताते हुए लिखा है - दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । ___ गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू॥ गाथार्थ - जो 'सत्' लक्षणवाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त है अथवा गुण-पर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ देव द्रव्य कहते हैं। इस जगत में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो स्व-अस्तित्व से अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव से भिन्न हो। द्रव्य का मुख्य धर्म द्रवता अर्थात् द्रवित होना-अन्वयशीलता है, इसकारण वह अपने ही गुण-पर्यायों में द्रवित होता है। इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य स्व-अस्तित्व से अभिन्न है - ‘ऐसे सत् को ही द्रव्य का लक्षण कहा है।" - इसीप्रकार प्रवचनसार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, बृहद्रव्यसंग्रह टीका, प्रवचनसार टीका, पंचाध्यायी आदि ग्रन्थों में भी द्रव्य के स्वरूप की चर्चा स्पष्टरूप से की गई है - विशेष जिज्ञासु पाठक इन ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य करें। पण्डित दीपचंदजी कासलीवालकृत चिविलास में भी द्रव्य, गुण, पर्याय के विषय को लेकर विशेष विवरण प्रारंभिक ३० पृष्ठों में आया १.पंचास्तिकाय गाथा-९। सद्रव्यलक्षणम्, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय-५, सूत्र-२९
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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