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________________ द्रव्य का स्वरूप समस्त परद्रव्यों के भावों से भिन्नपने द्वारा सेवन किया गया; ऐसा कहा जाता है। तथा वहीं ऐसा कहा है :__ “समस्तकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः।" (गाथा ७३ की टीका) अर्थ :- समस्त ही कर्ता, कर्म आदि कारकों के समूह की प्रक्रिया से पारंगत ऐसी निर्मल अनुभूति, जो अभेदज्ञान तन्मात्र है, उससे शुद्ध है। इसलिये ऐसा शुद्ध शब्द का अर्थ जानना।" यदि द्रव्य का मूल स्वभाव ही अशुद्ध हो जाय तो पर्याय को शुद्ध करने का कोई उपाय ही शेष नहीं रहेगा। - २. प्रश्न - पर्याय के विभाव अर्थात् अशुद्धरूप परिणमने पर मूल द्रव्य भी विभावरूप/अशुद्धरूप हो गया - ऐसा मानने में क्या आपत्ति . उत्तर - बहुत बड़ी आपत्ति है। जो अनादि-अनन्त होता है, वह स्वभाव से शुद्ध ही होता है; परन्तु पर्यायदृष्टि से द्रव्य को अशुद्ध कहा तो जाता है, तथापि मूल स्वभाव अशुद्ध होता नहीं। द्रव्य अनादि-अनन्त है, अतः वह स्वरूप से शुद्ध ही है। द्रव्य के शुद्धस्वभाव की स्वीकृति के कारण ही पर्याय को शुद्ध करने का प्रयास/ पुरुषार्थ किया जाता है। __ यदि द्रव्यार्थिकनय से भी द्रव्यस्वभाव को ही अशुद्ध मान लिया जाय तो पर्याय को शुद्ध करनेरूप मोक्ष का पुरुषार्थ ही नहीं रहता। __जैसे वैद्य या डॉक्टर, मानव शरीर को स्वभाव से निरोग मानते हैं और बीमारी को रोगाणुकृत तात्कालिक, क्षणिक व नष्ट होने योग्य विकार/विभाव मानते हैं और शरीर के निरोग स्वभाव की श्रद्धा के कारण ही औषधि आदि उपचारों से रोग को दूर करने का उपाय करते हैं।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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