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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
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२१. प्रश्न - क्या खण्ड-खण्ड ज्ञान - इन्द्रियज्ञान भी संयोगरूप है ? उत्तर - हाँ, वास्तव में तो खण्ड-खण्ड ज्ञान भी त्रिकालीस्वभाव की अपेक्षा से संयोगरूप है। जैसे इन्द्रियाँ संयोगरूप हैं, वैसे वह भी संयोगरूप है। जिसप्रकार शरीर, ज्ञायक से अत्यन्त भिन्न है; उसीप्रकार खण्ड-खण्ड ज्ञान - इन्द्रियज्ञान भी ज्ञायक से भिन्न है, संयोगरूप है; स्वभावरूप नहीं । ( आत्मधर्म: अक्टूबर १९७८, पृष्ठ- २४) की प्ररूपणा भी
असत्
२२. प्रश्न क्या ज्ञानी की प्ररूपणा में
आती है ?
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उत्तर - नहीं, ज्ञानी की वाणी में असत् की प्ररूपणा नहीं आती। ज्ञानी के अस्थिरता तो होती है, किन्तु उसकी प्ररूपणा में असत् कथन नहीं आता ।
व्यवहार से निश्चय होता है, राग से लाभ होता है अथवा राग से. धर्म होता है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कार्य कर सकता है - ऐसी प्ररूपणा को असत् प्ररूपणा कहते हैं।
(आत्मधर्म : जुलाई १९७८, पृष्ठ- २४) २३. प्रश्न – पंचास्तिकाय को अर्थी होकर सुने इसका क्या अर्थ है ?
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उत्तर - अर्थी होकर अर्थात् सेवक होकर, दास होकर सुनना । जैसे किसी बड़े आदमी के पास याचक होकर मांगा जाता है; उसीप्रकार गुरु के पास पात्र शिष्य याचक होकर सुनता है।
मैं भी कुछ जानता हूँ - इसप्रकार अभिमानपूर्वक नहीं सुनता, किन्तु गरजमन्द होकर अपना हित करने के लिए सुनता है। अपने ज्ञान में पंचास्तिकाय को जानता है - निर्णय करता है।
( आत्मधर्म : मार्च १९८०, पृष्ठ- २४)