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________________ 144 मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यग्ज्ञान जैसे परज्ञेय को अपना मानता नहीं, वैसे ही पर के ज्ञान को भी अपना ज्ञान मानता नहीं। जिसमें आनन्द का स्वाद आता है, ऐसे आत्मज्ञान को ही अपना ज्ञान मानता है। (आत्मधर्म : मई १९७९, पृष्ठ-२५) १९. प्रश्न - आत्मज्ञान हो जाने पर तो यह व्रतादि राग है, ऐसा भासित हो जाता है; परन्तु प्रथम तो आत्मज्ञान जल्दी होता नहीं है न? उत्तर - जल्दी का क्या अर्थ ? इसका अभ्यास करना चाहिये कि राग क्या है? आत्मा क्या है? मैं त्रिकाल टिकनेवाली चीज कैसी हूँ? इत्यादि अभ्यास करके, ज्ञान करके, राग से भिन्न आत्मा का अनुभव करना - यह पहली वस्तु है। आत्मा को जाने बिना समस्त क्रियाकाण्ड व्यर्थ हैं। आत्मा अन्दर आनन्दस्वरूप भगवान चैतन्य का पुँज प्रभु है। उसका ज्ञान न हो, अन्तरदशा का वेदन न हो, तबतक उसका क्रियाकाण्ड सब झूठा है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करना दुर्लभ है। अत: सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। (आत्मधर्म : अक्टूबर १९७८, पृष्ठ-२४) २०. प्रश्न - अपने ही सत् का ज्ञान करना क्यों महत्त्वपूर्ण है, पर सत् का क्यों नहीं? उत्तर - अपनी अपेक्षा से अन्य सभी परद्रव्य असत् हैं, स्वयं ही सत् है। स्वयं ही अपना ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञानरूप सत् है; अत: अपने ही सत् का ज्ञान करना। अपने सत् का ज्ञान करने से अतीन्द्रिय आनन्द की झलक आये बिना नहीं रहेगी, यदि आनन्द न आवे तो समझ लो कि हमने अपने सत् का सच्चा ज्ञान किया ही नहीं। मूल में तो अन्तर में झुकना-रमणता करना ही सर्व सिद्धांत का सार है। (आत्मधर्म : मार्च १९७९, पृष्ठ-२५)
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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