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________________ श्रीकानजी स्वामी के उद्गार 119 'शुद्धनय का अवलम्बन' - ऐसा कहने पर उसमें भी द्रव्य-पर्याय की अभेदता की ही बात आती है; परिणति अन्तर्मुख होकर द्रव्य में अभेद होने पर जो अनुभव हुआ - उसका नाम शुद्धनय का अवलम्बन है; उसमें द्रव्य-पर्याय के भेद का अवलम्बन नहीं है। ___ यद्यपि शुद्धनय ज्ञान का ही अंश है, पर्याय है; परन्तु वह शुद्धनय अन्तर के भूतार्थ स्वभाव में अभेद हो गया है अर्थात् वहाँ नय और नय का विषय जुदा नहीं रहा। जब ज्ञानपर्याय अन्तर में झुककर शुद्धद्रव्य के साथ अभेद हुई, तब ही शुद्धनय निर्विकल्प है। ऐसा शुद्धनय कतक फल के स्थान पर है। ___ जैसे मैले पानी में कतक फल अर्थात् निर्मली नामक औषधि डालने पर पानी निर्मल हो जाता है, वैसे ही कर्म से भिन्न शुद्धात्मा का अनुभव शुद्धनय से होता है। शुद्धनय से भूतार्थ स्वभाव का अनुभव होने पर आत्मा और कर्म का भेदज्ञान हो जाता है। (आत्मधर्म : फरवरी १९८२, पृष्ठ-२४) १९. प्रश्न-कितना अभ्यास करें कि सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सके? - उत्तर - ग्यारह अंगों का ज्ञान हो जाये – इतनी राग की मन्दता अभव्य को होती है। ग्यारह अंग के ज्ञान का क्षयोपशम बगैर पढ़े ही हो जाता है, विभंग ज्ञान भी हो जाता है और सात द्वीप समुद्र को प्रत्यक्ष देखता है, तो भी यह सब ज्ञान होना सम्यग्दर्शन का कारण नहीं है। . (आत्मधर्म : जुलाई १९७६, पृष्ठ-२१) २०. प्रश्न - ग्यारह अंग वाले को भी सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब आत्मा की रुचि बगैर इतना सारा ज्ञान कैसे हो जाता है ? उत्तर - ज्ञान का क्षयोपशम होना - यह तो मंद कषाय का कार्य है, आत्मा की रुचि का कार्य नहीं। जिसको आत्मा की यथार्थ रुचि होती है, उसका ज्ञान अल्प हो तो भी रुचि के बल पर सम्यग्दर्शन होता है।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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