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व्युत्पत्तिदीपिकाभिधान-ढुण्ढिकया समर्थिते सिद्धहेमप्राकृतव्याकरणे ।
॥ रम्यस्य रवण्णः ॥ संरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं न-वि उज्जाण-वणेहिं ।
देस रवण्णा होंति वढ ! निवसंतेहिं सुअणेहि ॥११॥ ॥अद्भुतस्य ढक्करिः ॥ हिअडा ! पई एहु बोल्लिअउ महु अग्गइ सय-वार ।
फुट्टिसु पिए पवसंते हउं भंडय ! ढक्करि-सार ! ॥१२॥ ॥ हे सखीत्यस्य हेल्लिः ॥ हेल्लि ! म झंखहि आलु । [४।३७९-१] ॥१३॥ ॥ पृथक् पृथगित्यस्य जुअंजुअः ॥ एक्क कुडुल्ली पंचहि रुद्धी तहं पंचहं वि जुअंजुअ बुद्धी । बहिणुए ! तं घरु कहि किव नंदउ जेत्थु कुडुंबउं अप्पण-छंदउं ॥१४॥ ॥ मूढस्य नालिअ-वढौ ॥ जो पुणु मणि-जि खसफसिहूअउ चिंतइ देइ न दम्मु न रूअउ । रइवस-भमिरु करग्गुल्लालिउ धरहिं-जि कोंतु गुणइ सो नालिउ ॥१५॥ दिवेहिं विढत्तउं खाहि वढ ! । [४।४२२-४] ॥१६॥ । नवस्य नवखः ॥ नवखी क-वि विस-गंठि । [४।४२०-५] ॥१७।।
॥ अवस्कन्दस्य दडवडः ॥ चलेहिं 'वलंतेहिं लोअणेहिं जे तई दिट्ठा बालि ! ।
तहिं मयरद्धय-दडवडउ पडइ अपूरइ कालि ॥१८॥
॥ यदेश्छुडुः ॥ छुडु अग्घइ ववसाउ । [४।३८५-१] ॥१९॥ ॥ सम्बन्धिनः केर-तणौ ॥ गयउ सु केसरि पिअहु जलु निच्चितई ! हरिणाई ! ।
जसु केरएं हुंकारडएं मुहहुँ पडंति तृणाई ॥२०॥
अह भग्गा अम्हहं तणा । [४।३७९-३] ॥२१॥ ॥ मा भैषीरित्यस्य मब्भीसेति स्त्रीलिङ्गम् ॥ सत्थावत्थहं आलवणु साहु-वि लोउ करेइ । आदन्नहं मब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ ॥२२॥ ॥ यद् यद् दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइट्ठिआ ॥ जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा ! मुद्धसहाव ! ।
लोहें फुट्टणएण जिव घणा सहेसइ ताव ॥२३॥ १. नयरं न होइ अट्टालएहिं पायारतुंगसिहरेहिं । गामो वि होइ नयरं जत्थ छइल्लो जणो वसइ ॥ [व० ल०-छइल्लवज्जा-२७०-१] नगरं न भवत्यट्टालकैः प्राकारतुङ्गशिखरैः । ग्रामोऽपि भवति नगरं यत्र विदग्धो जनो वसति ॥ २. जत्तो विलोलपम्हलधवलाइं चलंति नवर नयणाई । आयण्णपूरियसरी तत्तो च्चिय धावइ अणंगो ॥ ।
[व० ल०-नयणवज्जा-२९४|४] यतो विलोलपक्ष्मलधवलानि चलन्ति केवलं नयनानि । आकर्णपूरितशरस्तत एव धावत्यनङ्गः ॥ ३. H. I. M. चलंतेहिं ।