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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥
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॥ शीघ्रस्य वहिल्लः ॥ एक्कु कईअ ह-वि न आवहि अन्नु वहिलउ जाहि ।
मई मित्तडा ! पमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहिं ॥१॥ ॥ झकटस्य घंघलः ॥ 'जिव सु-पुरिस तिवं घंघलई जिव नइ तिवं वलणाई ।
जिवँ डुंगर तिव कोट्टरई हिआ ! विसूरहि काई ॥२॥ ॥ अस्पृश्यसंसर्गस्य विट्टालः ॥ जे छड्डेविणु रयणनिहि अप्पउं तडि घल्लंति ॥
तहं संखहं विट्टालु पर फुक्किज्जत भमंति ॥३॥ ॥ भयस्य द्रवक्कः ॥ दिवेहिं विढत्तउं खाहि वढ ! संचि म एक्कु-वि द्रम्मु ।
को-वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ॥४॥ ॥ आत्मीयस्य अप्पणः ॥ फोडेंति जे हियडउं अप्पणउं । [४।३५०-२] ॥५॥ ॥ दृष्टेट्टैहिः ॥ एक्कमेक्कउं जइ-वि जोएदि । हरि सुट्ठ सव्वायरेण तो-वि देहि जहिं कहि-वि राही । को सक्कइ संवरे वि दड्ढ-नयणा नेहें पलुट्टा ॥६॥ ॥ गाढस्य निच्चट्टः ॥ विहवे कस्सु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्सु मरट्ट ।
सो लेखडउ पठाविअइ जो लग्गइ निच्चट्ट ॥७॥ ॥ असाधारणस्य सड्ढलः ॥ कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहिं मेहु ।
दूर-ठिआह-वि सज्जणहं होइ असड्ढलु नेहु ॥८॥ ॥ कौतुकस्य कोड्डः ॥ कुंजरु अन्नहं तरुअरहं कोड्डेण घल्लइ हत्थु ।
मणु पुणु एक्कहिं सल्लइहिं जइ पुच्छह परमत्थु ॥९॥ ॥ क्रीडायाः खेड्डः ॥ खेड्डयं कयमम्मेहिं निच्छयं कि पयंपह ।
अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामिअ ! ॥१०॥
१. G. कइअ हे इत्यामन्त्रणार्थमव्ययम् । G. पा० वाक्यालङ्कारे कोमलामन्त्रणे वा हः - ताटि० । २. सह कोज्झरेहिं गिरिणो सरियाओ विचित्तवंकखलिणेहिं । घंघलसएहिं सुयणा विणिम्मिया हयकयंतेण । [पु० च० - ६७] ___ पुहईचंदचरिए छटे सूरसेण-मुत्तावलीभवे सूरसेण-मुत्तावलीणं जम्मो विवाहो य । ३. H. I. J. परु । ४. सव्व गोविउ जइवि जोएइ । हरि सुठु वि आयरेण देइ दिट्ठि जहिं कहिं वि राही । को सक्कइ संवरेवि डड्ढ-णयण णेहें पलोट्टउ ॥ [स्वयम्भूछन्दस्] ५. । बरहिणु। ६. गयणट्ठिओ वि चंदो आसासइ कुमुयसंडाई । [व० ल०-नेहवज्जा-७७-५] गगनस्थितोऽपि चन्द्र आश्वासयति कुमुदषण्डानि । दूरट्ठिइओ वि चंदो सुणिव्वुई कुणइ कुमुयाणं । [व० ल०-नेहवज्जा-७८-६] दूरस्थितोऽपि चन्द्रः सुनिर्वृति करोति कुमुदानाम् । कत्तो उग्गमइ रई कत्तो वियसंति पंकयवणाई । सुयणाण जए नेहो न चलइ दूरट्ठियाणं पि ॥ [व० ल०-नेहवज्जा-८०-८] कुत उद्गच्छति रविः कुतो विकसन्ति पङ्कजवनानि । सुजनानां जगति स्नेहो न चलति दूरस्थितानामपि ॥ ७. I. M. कुड्डेण ।