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(13) चुनाव का आदेश देता है तो मैनासुन्दरी अपने पिता के विषय में विचार करती है
कुलमग्गु ण याणइ अलिय भासि। नियगेहे आणइ अवजसुहरासि।। 2/4/8
अर्थात् मेरे पिता कुल-परम्पराओं को जानते नहीं, असत्य भाषी हैं, और अब अपने घर में अपयश ला रहे हैं।
जिह मइमत्तु गइंदु णिरंकुसु। जं भावइ तं बोलइ जिह सिसु। जायंधु वि जह मग्गु ण जाणइ। चउदिसु धावमाणु दुहु माणइ। तिहि राणउ लज्जा मेल्लिवि। जं रुच्चइ तं चवइ उवेल्लिवि।।
___ 2/5/8-11 अर्थात् जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी निरंकुश हो जाता है, उसी प्रकार हमारे पिताजी भी निरंकुश हो गए हैं। अज्ञानी बच्चों के समान ही जो मन में आता है सो बोलते हैं। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति मार्ग नहीं जानता और चारों दिशाओं में दौड़ता-दौड़ता दुःखभाजन बनता है ठीक उसी प्रकार ये भी मान-मर्यादा छोड़कर जो मन में आता है वही कर और बोल रहे हैं। इसके बाद वह अपने पिता को बड़ी ही निर्भीकता के साथ उत्तर देती है
भो ताय-ताय पइँ णिरु अजुत्तु । जंपियउ ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।। वरकुलि उवण्ण जा कण्ण होइ। सा लज्ज ण मेल्लइ एच्छ लोय।। वादाववाउ नउ जुत्तु ताय। तहँ पुणु तुअ अक्खमि णिसुणि राय।। बिहु लोयविरुद्धउ एहु कम्मु। जं सुव सइंवरु गिण्हइ सुछम्मु ।। जइ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु। तो लोयसुहिल्लउ इहु पवाहु।।
2/6/5 अर्थात् हे पिताजी, आपने जिनागम-सूत्रों के विरुद्ध ही मुझे अपने आप अपने पति के चुनाव कर लेने का आदेश दिया है। किन्तु जो कन्याएँ कुलीन होती हैं वे कभी भी ऐसी निर्लज्जता का कार्य नहीं कर सकतीं। हे पिताजी, इस विषय में मैं वाद-विवाद भी नहीं करना चाहती, इसीलिए आप मेरी प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें। आपका यह कार्य लोकविरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयम्वर करके अपने पति का निर्वाचन करे। अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ भी हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें...।