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________________ - (14) जा वुच्चइ कुल उप्पण्ण णारि। परियण जणमण णिरु सुक्खयारि।। जोव्वणीरूढ़ी पिच्छेवि ताउ। मणिं चिंत्त वहइ पुणु-पुणु सुभाउ।। णिब्भरु होमि किं देमि कासु। को जोगु अच्छि कहु कुल-पयासु ।। इय चिंतिवि पुणु परियणु महंतु। हक्कारिवि कीरइ सा रमंतु।। कुल जाय विसुद्धउ वसणचत्तु। करु रोप्पहि निय कुलमग्गरत्तु ।। जण पंच मिलिवि मंगलसरेहि। किज्जइ विवाहु चलचामरेहि।। पुणु जणणु समप्पइ वरहु हच्छि। परियणु विसमट्टइ तासु सच्छि।। कुलमग्गु तियहँ णिव एम होइ। तुव वयणे तासु विणासइ लोइ।। 2/7/1-8 अर्थात् जब किसी उच्च कुल में नारी जन्म लेती है तब वह निश्चय ही परिजनों के मानस को सुखकर होती है। उसे युवावस्था को प्राप्त देखकर पिता के मन में इस प्रकार की चिन्ता उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि “मैं किस प्रकार निश्चिन्त होऊँ, योग्य वर के हाथ में कैसे दूँ? कौन इस कन्या के योग्य वर है, कौन वर कुल-प्रकाशक है।" इस प्रकार परिवार के बड़े जन स्वयं ही विचार करके वर की खोज करते हैं और कुलीन, आचरण से पवित्र, व्यसन-त्यागी अपनी पुरातन परम्पराओं के प्रेमी वर को खोजकर पंच लोग मिलकर मंगल-स्वरों से कन्या का पाणिग्रहण करा देते हैं। पुनः पिता जब कन्यादान कर देता है, तब सभी परिजन प्रसन्न होते हैं। हे राजन्, यही कुलमार्ग है। किन्तु आपने जैसा कहा है, वह तो निश्चय ही इस लोक एवं परलोक का नाशक है। ___ इतना ही नहीं, मैनासुन्दरी अपनी बात आगे भी सुनाती ही गई। वह अपनी बड़ी बहन सुरसुन्दरी द्वारा स्वयं निर्वाचित पति संबंधी कार्य को कुल-कलंक कहती है तथा भवितव्यता को सर्वोपरि मानती हुई पुनः कहती है ...भव्वियव्बु ण फेडइ कोवि कासु। परिणवइ सुहासुहकम्मपासु।। णउ कोवि कासु सुहु विच्छरेइ। दुक्खु ण परमच्छे कुवि करेइ।। 2/9/9-10 अर्थात् हे पिताजी, भवितव्यता को कोई नहीं में सकता। कर्मों के शुभाशुभ फल को कोई भी नहीं बदल सकता। न कोई किसी का सुख छीन सकता है और न कोई किसी के दुःख को बदल ही सकता है।
SR No.007006
Book TitleSvasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Balbir
PublisherK S Muddappa Smaraka Trust
Publication Year2010
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English
File Size16 MB
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