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सुवर्णरौप्यसिद्धशास उंदिरिकण्णि बहुफली, दोव(न) तलाव तलि होइ । पहीले पुटे पारो भरे, दुजे कांचन होइ ॥२९॥ के रस रहे गगनके ग्रासे । के रस रहे कामिनी पासे ॥ के रस रहे तारके ग्रहे । के रस रहे गुरु के कहे ॥३०॥ वीस गंधक विसही पारा । 'दस नवसाररसे इदि विचारा ॥ प्रहर तीस की होवे आगि । रससिंदूर विधिसंयोगि ॥३१॥ नागायोगी खप्पर पूरें, ऊपरि भरजे गू(सू १) आ । गोरा माई भात परोसे, कचनका घर हूआ ॥३२॥ नागिणिफणिआमूल नागिणितोयेण गब्भनागेण । नाग होइ सुवण्ण', धम्मत्थमं तवायेण ॥३३॥ अस्थिमझमलमारित(खि)व'ग', तालकाभ्रविष सूतटंकणम् । भानुवनपयसाभिमर्दित, भो नरेन्द्र ! कुरु तारपर्वतम् ॥३४॥ साबू-साजी-सोमलसार । स्वेतकाउ अवर हरताल ॥ अमरी दुधे करर्ती सोखीये । सतर वाणी(नी) (1)पू परखीये ॥३५॥ नाग मरे रसपंजर वेधे । विनु नागहि रस मरत न दीसे ॥ नागपासिले बंधहु सु( सू)आ । चरपट बोले कंचन हुआ ॥३६॥ नागायोगी खर्पर पीवे, खर्पर पीवे सु(सू )आ । खर्पर कटोरी फूटन लागी, धरि धरि आनंद हुआ ॥३७॥ नाहिनागलतिकेंदु" वल्लभा । द्रोणपुष्पि (पी) रसमर्पितः क्रमात् ॥ सप्तद्यामृदुपुभितापित(:) । पारदः सपदि याति भस्मताम् ॥३८॥ साजी सिंघा फिटकड़ि गोदंती हरताल । गरुड़ विहंगम सम करि मेला, एक रतीने एकहि तोला ॥३९॥ 1. बहुफलि, अ, ब । 2. रस, अ। 3. दें, ब। 4. क्खिसूतटंकणं, अ। 5. तारपर्वतम् , ब । 6. कटारी, ब । 7. केंहुवल्लम, ब । 8. द्रोणपुष्पि, अ । द्रोणपुष्फे, ब । 9. पिता 'ब' प्रतमें नही मिलती है । तापिता अ ।
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