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प्रथम अध्याय सैमरलूण जंबीररस, अने जड़ीरस पाउ । पाके भांडे कलंक करि, फेड़ि दारिद्रय ठाउ ॥४०॥ गंधक गैरिकायुक्तं समभागेन सूतकम् । देवदालि रससंयुक्तं शुल्क(ल्व) भवति कांचनम् ॥४१॥ किमत्र चित्र यदि रक्त-गंधकम् । पलासयष्टीवनकल्ककल्कितम् ॥ अरण्यजैरुत्पलकै विपाचितम् । करोति तार त्रिपुटेन कांचनम् ।।४२।। दुगुण हेम चतुर्गुण पारा । षटगुण गंधक आमलसारा ॥ ते स्तंभना करुं हुंसिहारा । कंचन हुवे लाघव उदारा ॥४३॥ खप्पर सूता सम करि लीजे । मध्य कुमारिको रस दीजे ॥ गुंजा प्रमाणे सुलवे दीजे । पीत सुखे करि एहु लीजे ॥४४॥ दस रत्ता, दस स(म)त्ता, पंडुवरणा चारि ॥ . . खप्पर रंधहु खीचड़ो, चेला भुख न मारि ।।४।। शुक्रशोणितपीताभ्यां भागवित्रिकपंचकः [कै । कालिकारहित शुल्वमेषा [खा] विद्या नर्बुधैः ॥४६।। रसकुठसमभाग' मारितं तारतुल्य । द्विगुणमपि सुतालं मदित भानुदुग्धैः ॥ अतसितिलविपक्क वासराण्येव पंच । स भवति शतवेधी तारत्ताने भुजंगे ॥४७॥ मुणिकुसुमरसभावियं मणोसिला चुण्णदिण्णपडवाय । तिवारेहि* जादू वंग कलहाय-सारिच्छ ॥४८॥ माक्षिकनाग रस-गंधकं च, मनःशि(सि)लामिश्रितहिंगुलूकम् । एतानि पंचाशपुटै विमद्य, नागे मृते तारशतांशवेधः ॥४९॥ नाइणरसे रसिउ ससिसिंगै पारअं हि मारेइ । तार होइ सुवणं, इय भणिय वीयरायेण ॥५०॥ आदिकका अतिकका । ते मध्ये दो अक्खरा ॥ नाग मरे रस' सीखाइ । लोक सवे भागी करि खाइ ॥५१॥ 1. देलिदालि, ब । 2. खटगुण, अ। 3. मेखाविद्या, अ। 4. तिवारेहे, ब । . 5. वीयगएहण, ब । 6. आदिकाका, ब । 7. दस, ब ।
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