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श्रीशजयगिरिवरगता लेखाः
पूतिः २ ( श्रीशबंजयतीथोद्धारप्रबंधः । प्र० श्रीजैनआनंदसभा भावनगरः । सं० मुनिजिनविजयः सं० १९७३ पृष्ठः ७९ गतं इदं )
अनुपूतिः । शत्रुजय के इस महात् उद्धार के समय अनेक गच्छ के अनेक आचार्य और विद्वान् एकत्र हुए थे । उन सबने मिल कर सोचा कि जिस तरह अन्यान्यस्थलों में मन्दिर और उपाश्रयों के मालिक भिन्न भिन्न गच्छबाले बने हुए हैं और उन में अन्य गच्छवालों का हस्तक्षेप नहीं करने देते हैं वैसे इस महान् तीर्थ पर भी भविष्य में कोई एक गच्छवाला अपना स्वातंत्र्य न बना रक्खें, इस लिए इस विषय का एक लेख कर लेना चाहिए । यह विचार कर सब गच्छवाले धर्माध्यक्षों ने एक जैसा लेख बनाया था। इसकी एक प्राचीन पत्र ऊपर प्रतिलिपि की हुई मिली है जिस का भावानुवाद निम्न प्रकार है । मूल की भाषा तत्समय की गुजराती है । यह पत्र भावनगर के श्रीमान् शेठ प्रेमचन्द रत्नजी के पुस्तकसंग्रह में है ॥
१ श्रीतपागच्छनायक श्रीश्रीश्रीहेमसोमसूरि लिखितं । यथा-शत्रुजयतीर्थ ऊपर का मूल गढ, और मूल का श्रीआदिनाथ भगवान् का मन्दिर समस्त जैनों के लिये हैं। और बाकी सब देवकुलिकायें भिन्न भिन्न गच्छवालों की समझनी चाहिए । यह तीर्थ सब जैनों के लिए एक समान है । एक व्यक्ति इस पर अपना अधिकार जमा नहीं सकती। जैसा होने पर भी यदि कोई अपनी मालिकी साबित करमा चाहे तो उसे इस विषय का कोई प्रामाणिक लेख या ग्रंथाक्षर दिखाने चाहिए । बैसा करने पर हम उसकी सत्यता स्वीकार करेंगे । लिखा पण्डित लक्ष्मीकल्लोल गणि ने ।
२ तपागच्छीय कतकपुराशाखानायक श्रीविमलहर्षसू रि लिखितं-यथा .... .... .... (वाकी सब उपर मुताबिक ) लिखा भवसुन्दर गणि ने ।
३ श्रीकमलकलशसू रि गच्छ के राजकमलसू रि के पट्टधर कल्याणधर्मसूरि लिखितंयथा शत्रुजय के बारे में जो ऊपर लिखा हुआ है वह हमे मान्य है । यह तीर्थ ८४
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