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Jainism vis-à-vis Brahmanism
+ विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेन ...
+ न कर्म लिप्यते नरे...
+
सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः .... कुर्वन्नपि न लिप्यते ...
+
+ लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा...
(BdĀ. Up. 4. 4. 23 = Bdh. Dh. Sū. 2. 6. 11. 30; 2. 10. 17. 7; Ps. Sū. 5.20 ) ( IŚa Up. 2 ) (Kth. Up. 2. 5. 11)
(Gt. 5.7) (Gt. 5.10)
+ एवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यते...
+ नैनं कृताकृते तप्यतः....
(Ch. Up. 4. 14. 3) (BdĀ. Up. 4. 4. 23) (Md. Up. 3. 3)
+ पुण्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्यमुपैति ..
+ हत्वापि स इमाँल्लोकान्नायं हन्ति न हन्यते ...
(Gt. 18. 17)
+ अजहुः कर्म पापकं पुण्या पुण्येन कर्मणा... (ŚpBr. 13. 5. 4. 3, SnkŚSū. 16. 9. 7)
(30) सच्चम्मि धिइं कुव्वहा...
+ सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ..
+ आओवरया... लोगं उवेहमाणा...सच्चंसि परिविचिट्ठिसु...
+ तं सच्चं, सच्चवादी सोए तिण्णे...
+ सच्चे तत्थ करेज्जुवक्कमं...
+ अकोहणे सच्चरए तवस्सी...
+ से य सच्चे सुआहिए, सया सच्चेण संपन्ने...
+ सच्चेण पलिमंथए...
+ जिइंदिए सच्चरए स पुज्जो ....
Cp.
तद्वै तत् सत्यं बले प्रतिष्ठितम्....
... इदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा...
+ तस्य ह वा एतस्य ब्रह्मणो नाम सत्यमिति...
+
+ सत्यं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति,...
+ ... सत्यं ब्रह्म...
+ सत्यं सर्वं प्रतिष्ठितम्...
+ ....न वधेनास्य हन्यत एतत्सत्यम्... (31) अणुवरता अविज्जाए...
Cp. अविद्यायां बहुधा वर्तमानाः.. बालाः ..
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(32) संतिं विरति उवसमं णिव्वाणं.....
+ उवसंते... परिव्वए...
Cp. ....शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः ... सर्वमात्मानं पश्यति....
+
... प्रपंचोपशमः शिवः...
सत्यस्य सत्यं प्राणा वै सत्यं तेषामेव सत्यम्...
(BdĀ. Up. 2. 1. 20 = 2. 3. 11 = ŚpBr. 14.5.1.23, 14. 5. 3. 11)
(Ch. Up. 7. 16. 1 ) (BdA. Up. 5. 5. 1) (MhNn. Up. 22. 1) (Ch. Up. 8. 1. 5, 8.10.4)
(Ac. I. 151) (Md. Up. 1. 2. 9)
(āc. 1. 96, 191, 196) (Ac. I. 116, 164)
(Ác. I. 117)
(Ác. I. 127) (Ac. I. 146) (Āc. I. 224, 228)
(Sū. I. 2. 3. 14)
(Sū. I. 10. 12) (Sū. I. 15. 3) (Utt. 9.21) (Daśa. 9. 3. 13) (BdA. Up. 5. 14. 4)
(Ch. Up. 6. 7.7; 6. 8.7)
(Ch. Up. 8. 5.4)
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(Bdā. Up. 4. 4. 23)
(Mdy. Up. 7)
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