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अनु. विषय
पाना नं.
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3 द्वितीय सूत्रछा अवतरा, द्वितीय सूत्र और छाया। ४ माहारसे परिपुष्ट प्रशियों में ये शरीर, परीषहोंछे मानेपर विनष्ट हो जाते हैं । हेजो; ठितने प्राशी क्षुधापरीषहसे छातर हो जाते है, और छनळे विपरीत छोछ २ रागद्वेषवर्थित मुनि क्षुधापरिषहछे प्राप्त होने पर भी निष्प्राम्य हो र ष वनिछायझे उपर ध्या उरने में ही संलग्न रहते हैं। ५ तृतीय सूचछा अवतरा, तृतीय सूत्र और छाया। ६ पूर्वोत भुनि आगभमें कुशल होते हैं और वे हाल, अल, भाया, क्षारा, विनय और सभय ज्ञाता होते हैं। वे परिग्रहमें भभत्व नहीं रजते हैं, यथाटात अनुष्ठान रनेवाले होते हैं और अप्रतिज्ञ होते हैं । मेसे मुनि रागद्वेषष्ठो छिका रठे भोक्षष्ठो प्रप्त उरते हैं। ७ यतुर्थ सूत्रमा अवतरस, यतुर्थ सूत्र और छाया । ८ शीतस्पर्शसे उम्पितशरीर भुनिछो हेज र यहि गृहपति पूछो ठि आयुष्मन् ! ज्या अपहा शरीर भनित पीडासे उंधित हो रहा है ? तो भुनि उससे हे-हे गाथापति ! मेरा शरीर छाभविछारसे नहीं सुध रहा है, ठिन्तु शीतछी आधाछो मैं नहीं सह पा रहा हुँ छसलिये उँप रहा है । स पर यहि गृहपति छोडिहे आयुष्यन् ! तो आप अग्रिसेवन ज्यों नहीं डरते ? उस पर वह साधु छठे ठिहे गाथापति! मुझे अग्निछो प्रवलित उरना या उसका सेवन उरना नहीं उत्पता । इस प्रकार हने पर यहिवह गृहपति या अन्य गृहस्थ आग Yला र उस मुनि शरीरछो तापित छरे तो वह मुनि गृहस्थष्ठो सभा र अग्रिसेवनसे दूर ही रहे।
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॥ति तृतीय
श ॥
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩
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