SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनु. विषय पाना नं. ८ वह साधु गृहपतिद्वारा प्रहत्त उस आहाराहिछो उभी भी स्वीटार न छरे । छतना ही नहीं वह साधु शाध्यादि परतीर्थिों छो उभी भी अशनाहिऊनही हेवे, न उन्हें निभन्त्रित रे, न उनछी सेवा उरे, और न उनका आहर ही रे। ८ प्रश्वभ सूचठा अवता और प्रश्वभ सूत्र । १० भगवान्छी आज्ञा है हिसाधु अपने साधर्भिसाधुटो सशनाछि प्रधान छरे, उसो निभन्त्रित रे, उसछी सेवा ग्रे और उसठा आरसत्कार छरे । ૨૪૧ २४१ २४१ ॥ति द्वितीय देश ॥ ॥अथ तृतीय देश ॥ ૨૪૨ १ तृतीय शठा द्वितीय शिळे साथ सम्मन्धथन । प्रथम सूचठा सवतराश, प्रथम सूत्र और छाया। २ ठितनेछ भनुष्य युवावस्थामें ही संसुद्ध हो मुनि होते हैं। उनमें से सुद्धोधित होते हैं वे परिऽतों अर्थात् तीर्थरगाधर आहिछे सभीष धर्भवयन सुन र, उन्हें ध्यमें उतार र सभताभावठा अवलम्जन रे; ज्यों डि तीर्थरगाधर माठिोंने सभतासे ही धर्मष्ठा प्र३पाया ठ्यिा है। उन साधुओंठो याहिये डिवे शाहि विषयोंडी अभिलाषासे रहित हो र, प्राशियोंटी हिंसा और परिग्रह नहीं उरते हुमे वियरते हैं । मेसे मुनि छली भी परिग्रहोंसे लिप्त नहीं होते हैं, और न ये प्राशियोंडे उधर भनोवामुकाया ही प्रयोग उरते हैं। मेसे भुनियोंछो तीर्थरोंने भहान और अग्रन्थहा है । मेसे भुनि भोक्ष और संयभठे स्व३पछे परिज्ञाता होते हैं, और वे हेव, नारठ, भनुष्य और तिर्थयडे नभ – भरशाहिदुःजोंठो भान हर इभी भी पार्भ नहीं उरते हैं। २४३ श्री मायासंग सूत्र : 3 २७
SR No.006403
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi Gujarati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy