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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू० २९ भरतादिषु मनुष्याणामुपभोगादिनिरूपणम् ६६१ दुष्षमा-५ दुष्पमदुष्षमा-६ रूप षट् समययुक्ताभ्याम् उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां मनुष्याणां तावद् उपभोगरूपानुभव-जीवितलक्षणायु:-शरीरोत्सेधलक्षणप्रमाणादिकृतौ वृद्धिहासौ भवतः । तथाच-भरतक्षेत्रे-ऐरवतक्षेत्रे च मनुष्याणाम् उपभोगः आयु:-शरीरप्रमाणञ्च समानरूपतया न भवति, तयोः क्षेत्रयोः पूर्वोक्त षड्विध कालविशेषयुक्तोत्सर्पिण्योः सत्त्वेन तन्निवृत्तौ वृद्धिहासौ उपभोगादिषु मनुष्याणां भवतः । तदितरेषु पुनः-भरतै-रवताऽतिरिक्तेषु हैमवत हरिवर्ष-महाविदेह-रम्यक हैरण्यवतक्षेत्रेषु तथाविधोत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालाभावेन मनुष्याणां तत्प्रयुक्तौ वृद्धिहासौ-उपभोगादिषु न भवतः । तथाच-भरतैरवतबर्षयोर्मनुष्याणामनुभवायुः शरीरप्रमाणादिकृतौ वृद्धिहासौ भवतः, तौ चापिवृद्धिहासौ षट् सामयिकोत्सर्पिणीरूपकालविशेषनिमित्तको अवसेयौ । तत्रा -ऽनुभवस्तावद् उपभोगरूपः । आयुर्जीवितम्, प्रमाणञ्च-शरीरोत्सेधरूपम्, इत्येवं प्रभृतिषु मनुष्याणां वृद्धिहासौ भवतः । उत्सर्पिणीकालः अवसर्पिणीकालश्च प्रत्येकं षइविधः । अबसर्पिणीकाल में छह और इस प्रकार होते हैं--- (१) सुषम सुषमा (२) सुषम (३) सुषमदुष्षमा (४) दुष्पमसुषमा (५) दुष्षमा और (६) दुष्षमदुष्षम । अवसर्पिणी काल के इन छह आरों की समाप्ति के पश्चात् उत्सर्पिणी काल आरंभ होता है, जिसका प्रथम आरा दुष्पदुषमा और अन्तिम सुषमसुषमा होता है । अर्थात् अवसर्पिणीं काल के छह आरों से उत्सर्पिणी काल के आरे एकदम विपरीत क्रम से होते हैं । उत्सर्पिणी काल में आयु, उत्सेध आदि में क्रमशः वृद्धि होती रहती है और अवसर्पिणी काल में अनुक्रम से हानि होती है। यह विषमता सिर्फ भरत और ऐरवत क्षेत्रों में ही होती है। इन दोनों क्षेत्रों में मनुष्यों आदि के उपभोग में, आयु में तथा शरीर के प्रमाण आदि सदैव समानता नहीं होती, वरन् उत्सर्पिणी काल में वृद्धि और अवसर्पिणी काल में हानि होती है। इसका कारण यह है कि इन दोनों क्षेत्रों में ही उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल का भेद है। भरत और ऐरवत क्षेत्रों के सिवाय हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक और हरण्यवत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल नहीं होता। यह कालभेद न होने से मनुष्यों आदि की आयु, अवगाहना आदि में भी भेद नहीं होता है, आयु आदि में जो वैषम्य होता है उसका कारण कालकृत वैषम्य है। काल को वैषभ्य के अभाव में तज्जनित आयु अवगाहना आदि का वैषम्य भी नहीं होता है। अनुभव का अर्थ है भोग और उपभोग, आयु से तात्पर्य है जीवन या जीवित रहने का कालमान और प्रमाण का मतलब है शरीर की ऊँचाई । इन सब में वृद्धि और हानि होती रहती है। उत्सर्पिणी के छह विभाग होते हैं वे इस भाँति है-(१) दुष्षमदुष्षमा (२) दुष्पमा શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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