SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 682
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्रे दुष्पमा-दुष्षमसुषमा-दुष्षमा-दुष्षमदुष्पमा रूपकालविशेषयुक्ताभ्याम्-उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् मनुष्याणाम् उपभोगायुः शरीरोत्सेधप्रमाणादिकृतौ वृद्धि हासौ भवतः । तदितरेषु-भरतैरवताऽतिरिक्तेषु पुनः-हैमवत हरिवर्ष–महाविदेह-रम्यक हैरण्यवत क्षेत्रेषु मनुष्याः यथावस्थिता एव भवन्ति । नहि-हि हैमवतादिपञ्चक्षेत्रेषु मनुष्याणाम्-उपभोगायुः शरीरोत्सेधप्रमाणादिकृतौ वृद्धि हासौ भवतः ।। अपितु--तेषु क्षेत्रेषु-उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योरसद्भावेन कालस्य यथावस्थितत्वेनो-पभोगायुः शरीरोत्सेधप्रमाणादिषु साम्यमेव भवति मनुष्याणाम्, न तु वैषम्यमितिभावः ॥ २९ ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व तावद् जम्बूद्वीपान्तर्वर्तिनां भरतादिसप्तक्षेत्राणां प्ररूपणं कृतम्, सम्प्रति-तेषु क्षेत्रेषु मनुष्याणां किं समानता एवा-ऽनुभवलक्षणो-पयोगजी-वितायुः शरीरोत्सेध प्रमाणादयो भवन्ति ? आहोस्वित्-कश्चित्प्रतिविशेषो भवतीत्याशङ्कां समाधातुमाह-"भरहेरवएसुं छस्समयाहिं उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं-मणुयाणं बुड्ढी-हासा, तइयरेसु जहावट्ठिया-" इति । पूर्वोक्तानां-भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवतै रवतक्षेत्राणां मध्ये भरतैरवतयीः क्षेत्रयोः खलु षट् समयाभ्याम्-षट्-षट् संख्यकाः समयाः यत्र ताभ्यां षट् समयाभ्यां कालविशेषस्वरूपाभ्याम्-सुषमसुषमा-१ सुषमा-२ सुषमदुष्षमा-३ दुष्पमसुषमा-४ दष्षम-दुष्षम । उत्सर्पिणी काल के आरों के भी यही नाम है, किन्तु उनका नाम विपरीत होता है, जैसे दुष्पमदुष्षम, दुष्पम आदि । भरत और ऐरवत क्षेत्रों मे ही यह वृद्धि-हास होता है । इन दो क्षेत्रों के अतिरिक्त हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह रम्यक हैरण्यवत क्षेत्रों में मनुष्यों की आयु आदि ज्यों की त्यों रहती है अर्थात् उसमें वृद्धि या हानि नहीं होती। तात्पर्य यह है कि हैमवन्त आदि क्षेत्रों में न तो उत्सर्पिणी-अपसर्पिणी रूप काल का विभाग होता है । और न मनुष्यों की आयु ऊँचाई आदि में वृद्धि-हास होता है । वहाँ सदैव एक सरीखा काल रहता है, अतएव काल की विषमता के कारण आयु अवगाहना आदि में होने वाली विषमता वहाँ नहीं है ॥२९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति -पहले जम्बूद्वीप के अन्दर स्थित भरत आदि सात क्षेत्रों की प्ररूपणा की गई है। अब उन क्षेत्रों में निवास करने वाले मनुष्यों के उपयोग आयु, शरीर के उत्सेध आदि में समानता होती है अथवा किसी प्रकार की विशेषता होती रहती है ! इस आशंका का समाधान करने के लिए कहते हैं-- पूर्वोक्त भरत, हैमवत, हरिवर्ष महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरवत क्षेत्रों में से भरत और ऐरवत नामक क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों में मनुष्यों के भोग, उपभोग आयुष्य और शरीर के उत्सेध (ऊँचाई) आदि में वृद्धि और हास होता रहता है। इन उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालों में से प्रत्येक में छह समय होते हैं, जिन्हें 'आरा' भी कहते हैं। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy