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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. ५ सू. २९ भरतादिषु मनुष्याणामुपभोगादिनिरूपणम् ६५९ वटृति, आयामविक्खंभोच्चतोव्वेह संठाणपरिणाहेणं, तं जहा--चुल्लहिमवंते चेव-सिहरिच्चेव, एवं महाहिमवंतेचेव-रुप्पिच्चेव, एवं निसड्ढे चेव-णीलवंते चेव-' इत्यादि । जम्ब्वाः मन्दरस्य पर्वतस्य चोत्तरदक्षिणे खलु द्वौ वर्षधरपर्वतौ बहुसमतुल्यौ अविशेषाज्ञप्ती अन्योऽन्यं नाति वर्तते, आयामविष्कम्भ उच्चतोद्वेध-संस्थान-परिणाहेन, तद्यथा-क्षुल्लहिमवांश्चैवशिखरीचैव, एवं-महाहिमांश्चैव-रुक्मीचैव । एवं-निषधश्चैव-नीलवांश्चैव, इत्यादि ॥ २८ ॥ ___ मूलसूत्रम्-- "भरेहे-रवएसुं छस्समयाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं मणुयाणं वुड्ढीहासातइयरेसु जहावट्ठिया-" ॥२९॥ __छाया--"भरतै-रवतयोः षट्समयाभ्याम् उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां मनुष्याणां वृद्धिहासौ, तदितरेषु यथावस्थिताः- ॥२९॥ ___ तत्त्वार्थदीपिका- 'पूर्वं भरतादिक्षेत्राणां क्षुल्लहिमवदादिवर्षधर-पर्वतानाञ्चा-ऽऽयामविष्कम्भादि स्वरूपाणि प्ररूपितानि, सम्प्रति--तेषु खलु भरतादि क्षेत्रेषु मनुष्याणामुपभोगायुः शरीरप्रमाणादिविषये वृद्धि-हासादिकं प्ररूपयितुमाह ___"भरहेरवएसुं - " इत्यादि । पूर्वोक्तेषु भरताद्यैरवतान्तेषु सप्तसु क्षेत्रेषु, भरतैरवतयोः क्षेत्रयोर्मध्ये षट्समयाभ्याम्-षट्समयाः ययोस्ताभ्यां षट्समयाभ्याम्-सुषमसुषमा-सुषमा-सुषमपर्वत से आधा विस्तार हैरण्यवत वर्ष का, है हैरण्यवत वर्ष से आधा विस्तार शिखरी पर्वत का है और शिखरी पर्वत से आधा विस्तार ऐरवत बर्षे का है। ___स्थानांगसूत्र के दूसरे स्थान, दूसरे उद्देशक के ८७ वें सूत्र में कहा है-जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर और दक्षिण में दो वर्षधर पर्वतबिलकुल समान हैं, उनमें कोई विशेषता नहीं है, विसदृशता नहीं है, वे लम्बाई, ऊँचाई, चोड़ाई, अवगाह संस्थान और परिधि में एक-दूसरे से भिन्न प्रकार के नहीं हैं, वे दो पर्वत हैं-चुल्लहिमवन्त और शिखरी। इसी प्रकार महाहिमवन्त और रुक्मी पर्वत तथा निषध और नीलवन्त पर्वत । इत्यादि ॥२८॥ 'भरहे-रवएसु' इत्यादि ॥सू० २९॥ भरत और ऐरवत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छह आरों में मनुष्यों की आयु आदि की वृद्धि-हानि होती रहती है । शेष क्षेत्रों में वृद्धि-हानी नहीं होती ॥२९॥ तत्त्वार्थदीपिका -- इससे पूर्व भरत आदि क्षेत्रों के तथा चुल्लहिमवन्त आदि वर्षधर पर्वतों के आयाम, विष्कंभ आदि का प्ररूपण किया गया, अब उन भरत आदि क्षेत्रों में निवास करनेवाले मनुष्यों के उपयोग, आयु शरीर प्रमाण आदि के वृद्धि एवं हास की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं पूर्वोक्त भरत से लेकर ऐरवत तक सात क्षेत्रों में से भरत और ऐरवत इन दो क्षेत्रों में छह आरों वाले उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालो में मनुष्यों के उपयोग, आयु शरीर के अवगाह आदि में वृद्धि और हानि होती रहती है । अवसर्पिणी काल के छह आरे है (१) सुषमसुषम (२) सुषम (३) सुषमदुष्षम (४) दुष्षमसुषम (५) दुष्षम और (६) શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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