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तत्त्वार्थसूत्रे तत्रोपभोगायुः शरीरोत्सेधादिभिः उत्सर्पण-वर्धनशीलत्वाद् 'उत्सर्पिणी' तिव्यपदिश्यते, तैरेवउपभोगादिभिरवसर्पणशीलत्वाद् ‘अवसर्पिणी' त्युच्यते ।
तत्र-उत्सर्पिण्याः षड्विधः कालः । यथा-दुष्पमदुष्षमा-१ दुष्षमा-२ दुष्पमसुषमा-३ सुषमदुष्पमा-४ सुषमा-५ सुषमसुषमा-६ चेति । अवसर्पिण्या: षड्विधः कालो यथा-सुषमसुषमा-१ सुषमा-२ सुषमदुष्पमा-३ दुष्पमसुषमा-४ दुष्पमा-५ दुष्यमदुष्षमा-६ चेति ।
तत्र-दशसागरकोटीकोटयः-उत्सर्पिण्याः परिमाणम्, अवसर्पिण्या अपि परिमाणं दशसागरकोटी-कोट्य एवेति, सा चो-भयी मिलित्वा 'कालचक्रम्' इत्याख्यायते । तत्र--सुषमसुषमा चतस्रः सागरोपमकोटीकोटयः, तत्रादौ मनुष्या स्तावद्-वक्ष्यमाणोत्तरकुरुमनुष्यतुल्या स्त्रिक्रोशप्रमाणा भवन्ति । १ तदनन्तर मवसर्पिणीकालत्वेन क्रमशो हानौ सत्यां सुषमा भवति,
सा च-सुषमा त्रिस्रः सागरोपमकोटी कोट्यः तत्रादौ मनुष्याः-हरिवर्ष मनुष्यसदृशाद्विक्रोशप्रमाणा भवन्ति, । २ ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमदुष्पमा भवति, सा च द्वे सागरोपम-कोटी कोट्यौ, तदादौ-मनुष्याः हैमवतवर्षमनुष्यसमाना एकक्रोशप्रमाणा भवन्ति-३ ततः क्रमेण हानौ सत्यां दुष्षमसुषमा भवति, सा च-द्वाचत्वारिंशत्सहस्त्रवर्षोना-एक सागरोपमकोटीकोटी (३) दुष्षमसुषमा (४) सुषमदुष्धमा (५) सुषमा और (६) सुषम सुषमा । इससे विपरीत क्रम वाला अवसर्पिणीकाल है , यथा-(१) सुषम सुषमा (२) सुषमा (३) सुषम दुष्षमा (४) दुष्षमसुषमा (५) दुष्षमा और (६) दुष्षमदुष्पमा ।
इनमें से उत्सर्पिणी काल का प्रमाण दस कोड़ा कोड़ी सागरोपम का है और अवसर्पिणी काल का प्रमाण भी दस कोड़ा-कोडी सागरोपम ही है। दोनों का काल वीस कोडाकोडी सागरोपम है । इसे एक कालचक्र कहते हैं। इनमें से सुषमसुषमा आरा चार कोडा-कोडी सागरोपम का होता है । इस आरा की आदि में मनुष्य आगे कहे जाने वाले उत्तर कुरुक्षेत्र के मनुष्यों के समान तीन कोस की अवगाह वाले होते हैं । फिर अवसर्पिणी काल के प्रभाव से क्रमशः हानि होते-होते चार कोडा-कोडी सागरोपम समाप्त होने पर सुषमाकाल आरम्भ होता है।
सुषमा काल तीन कोड़ा-कोडी सागरोपम का है ! इसके प्रारम्भ में मनुष्य हरिवर्ष क्षेत्र के मनुष्यों के समान दो कोस की अवगाहना वाले होते हैं । तत्पश्चात् क्रमशः हानि होते-होते उक्त काल व्यतीतहोने पर सुषमदुषमा काल आरम्भ होता है । उसका कालमान दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का है। उसके प्रारम्भ में मनुष्य हैमवत वर्ष के मनुष्यों के समान एक कोस की अवगाहना वाले होते हैं । तत्पश्चात् अनुक्रम से हास होते-होते दुष्पमसुषमा काल प्ररम्भ होता हैं । वह बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का होता है। इस काल के आरम्भ में मनुष्य महाविदेह क्षेत्र के मनुष्यों के समान
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧