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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ५ सू. २८ नीलदित्रयवर्षधराणां रम्यकादि त्रयवर्षाणां विष्कम्भः ६५५ जम्बूद्वीपे द्वीपे-निषधनामा वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीन-प्रतीचीनायतः उदीची-दक्षिणविस्तीर्णः, द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पौरस्त्यया कोट्या-पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन-षोडषयोजनसहस्राणि अष्टच द्वाचत्वारिशान योजनशतानि द्वौ चैकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेण- इति । ६-पुनश्चाने तत्रैव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ महाविदेहमधिकृत्योक्तम्--"जंबुद्दीवे दीवे-महाविदेहेवासे पण्णत्ते, पाईणपडिणायए उदीण-दाहिणविच्छिण्णे, पलियंकसंठाणसंठिए दुहालवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पचत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे तेत्तीस जोयणसए चत्तारि य एगृणवीसइभाए जोयणसहस्सविक्खम्भेणं-" इति । "जम्बूद्वीपे द्वीपे-महाविदेहवर्षः प्रज्ञप्तः, प्राचीन-प्रतीचीनायतः उदीची-दक्षिणविस्तीर्णः पल्यं संस्थानसंस्थितो द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यलवणसमुद्रं स्पृष्टः त्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि-षट्चचतुरशीतानि योजनशतानि चत्वारश्चैकोनविंशतिभागाः योजनस्य विष्कम्भेण" इति ॥२७॥ मूलसूत्रम्-"उत्तरा वासहरवासा दाहिणतुल्ला विक्खंभेणं-" ॥२८॥ छारा-"उत्तरा वर्षधरवर्षाः दक्षिणतुल्या विष्कम्मेण-" ॥२८॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे-क्षुद्रहिमवदादि महाविदेहान्तानां षण्णाँ वर्षधराणं-वर्षाणाश्च यथाक्रमं विष्कम्भः प्ररूपितः, सम्प्रति-नील-रूक्मि-शिखरिणां त्रयाणां बर्षधराणां, रम्यक-हैरण्यवतै-रवतानाञ्च त्रयाणां वर्षाणां विष्कम्भं प्ररूपयितुमाह--- __तदनन्तर वहीं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में निषधपर्वत के विषय में कहा है- 'जम्बूद्वीप नामक वर्षधर पर्वत कहा है । वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, दोनों ओर लवण समुद्र से स्पृष्ट है। उसका पूर्वी छोर पूर्व लवणसमुद्र से और पश्चिमी छोर पश्चिमलवण समुद्र से छुआ हुआ है। वह चार सौ योजन ऊंचा है। उसका अवगाह चार सौ गव्यूति का है और विस्तार १६८४२ -- योजन का है। फिर जम्बूद्वीप्रज्ञप्ति में ही महाविदेह के विषय में कहा है।-जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महाविदेह नामक वर्ष है वह पूर्व -पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौडा, पलंग के आकार का लम्ब-चौकोर, और दोनों ओर लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। उसका पूर्वी किनारा पूर्व के लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं । और पश्चिमी किनारा पश्चिमी लवण समुद्र से स्पृष्ट है। उसका विष्कम्भ ३३६८४ - योजन का है ॥२७॥ 'उत्तरा वासहरवासा' इत्यादि सूत्रार्थ-उत्तर दिशा के वर्षधर पर्वत और वर्ष अर्थात् क्षेत्र दक्षिण दिशा के ही विष्कम्भ के समान हैं ॥२८॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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