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________________ ६५४ तत्त्वार्थसूत्रे दोण्णि य दसुत्तरं जोयणसए दस एगूणवीसईभाए जोयणस्स विक्खम्भेणं-" इति । ___जम्बूद्वीपे द्वीपे–महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः प्राचीन-प्रतीचीना-ऽऽयतः उदीचीदक्षिणविस्तीर्णो द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पौरस्त्यया कोट्या पौरस्त्यं लवणसमुद्र, स्पृष्टः, पाश्चात्यया कोट्या यावत्स्पृष्टः द्वे योजनशते-ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, पञ्चाशद्योजनानि-उद्वेधेन; चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च दशोत्तरे योजनशते दशचैकोनविंशतिभागाः योजनस्य विष्कम्भेण-इति । ४-पुनश्चाग्रे-हरिवर्षमधिकृत्य तत्रैव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ प्रतिपादितम्-"जंबुद्दीवे दीवे हरिवासणामं वासे पण्णत्ते, एवं पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, अट्ठजोयणसहस्साई चत्तारि एगवीसे जोयणसए एगं च एगणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणं-" इति ।। जम्बूद्वीपे द्वीपे-हरिवर्षों नाम वर्षः प्रज्ञप्तः, एवं-प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीची. दक्षिण-विस्तीर्णः, द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः पौरस्त्यया कोट्या-पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, अष्टयोजनसहस्राणि चत्वारि एकविंशानि योजनशतानि एकश्चैकोनविंशतिभागो योजनस्य विष्कम्भेण-इति । ५-ततश्चाग्रे पुनस्तत्रैव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ निषधवर्षधरपर्वतमधिकृत्य चोक्तम्-"जंबुद्दीवे दीवेणिसहे णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दहालवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे चत्तारिजोयणसयाई उड्हें उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेण-सोलसजोयणसहस्साइं अट्ठय बायाले जोयणसए दोण्णिय एगृणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं-" इति । तत्पश्चात् वहीं महाहिमवन्त पर्वत के प्रकरण में कहा है-जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महा हिमवन्त नामक वर्षधर पर्वत कहा गया है । वह पूर्व पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा दोनों लवणसमुद्र से छुआ हुआ है। उसका पूर्वी भाग पूर्वी लवण समुद्र से और पश्चिमी भाग पश्चिम लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । दो सौ योजन ऊँचा है , पचास योजन अवगाह वाला है और उसका विस्तार ४२१० योजन हैं । फिर हरिवर्ष के विषय में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ही कहा है-जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हरिवर्ष नामक क्षेत्र कहा है । पूर्व-पश्चिम में लम्बा-उत्तर- दक्षिण में चौड़ा और दोनों ओर लवण समुद्र में प्रविष्ट है। अपने पूर्वीय छोर से पूर्व लवणसमुद्र से और पश्चिमी छोर से पश्चिम लवणसमुद्र से छुआ हुआ है उसका विस्तार ८४२१.. योजन का है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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