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________________ ६५६ तत्त्वार्यसूत्रे "उत्तरा वासहरवासा-" इत्यादि । उत्तराः-नील-रम्यक-रुक्मि-हैरण्यवत-शिखरि-ऐरवताः खलु षट् वर्षधरवर्षाः विष्कम्भेण-बाहल्येन विस्तारेण दक्षिणतुल्या:-क्षुद्रहिमवदादिदक्षिणवर्षघरवर्षप्रमाणाः अवसेयाः । ___ तत्र-नीलवर्षधरपर्वतो निषधपर्वततुल्यविष्कम्भः । रम्यकवर्षश्च-हरिवर्षतुल्यविष्कम्भः । रुक्मी वर्षधरपर्वतो महाहिमवद्वर्षधरतुल्यविष्कम्भः । हैरण्यवतवर्षस्तु-हैमवतवर्षतुल्यविष्कम्भः । शिखरी वर्षधरपर्वतस्तु-क्षुद्रहिमवद्यर्षधरतुल्यविष्कम्भः । ऐरवतवर्षः पुनर्भरतवर्षतुल्यविष्कम्भो भवतीतिभावः । तथाच-भरतक्षेत्रस्य यावान् विस्तारो वर्तते, तावान्-ऐरवतक्षेत्रस्य विस्तारो बोध्यः । क्षुद्रहिमवत्-पर्वतस्य-यावान् विस्तारः, तावान्-शिखरिपर्वतस्य विस्तारः । हैमवतक्षेत्रस्य यावान् विस्तारः, तावान्-हैरण्यवतक्षेत्रस्य विस्तारः। महाहिमवत् पर्वतस्य यावान् विस्तारः, तावान्रुक्मिपर्वतस्य विस्तारः । हरिवर्षस्य यावान् विष्कम्भो वर्तते, तावान्-विष्कम्भो रम्यक क्षेत्रस्य वर्तते । निषधपर्वतस्य च-यावान् विष्कम्भ स्तावान् विष्कम्भो नीलपर्वतस्य वर्तते । एवमेव-ऐरवतादि स्थितं हृदपुष्करादिकम् , भरतादिस्थित हद-पुष्कर सदृशमेवाऽवगन्तव्यमिति फलितम् ॥२८॥ तत्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में क्षुद्रहिमवान् पर्वत से महाविदेह क्षेत्र तक के क्षेत्रों और पर्वतों का विस्तार बतलाया गया है; अब नील, रुक्मि और शिखरि नामक पर्वतों का तथा रम्यक् हैरण्यवत और ऐवत क्षेत्रों के विस्तार का प्ररूपण करते हैं उत्तर दिशा में स्थित नील पर्वत, रम्यक्षेत्र, रुक्मि पर्वत, हैरण्यवत क्षेत्र, शिखरिपर्वत और ऐरवत क्षेत्र ये छह क्षेत्र एवं पर्वत विस्तार में दक्षिणदिशा के क्षुद्रहिमवान् आदि पर्वतों और क्षेत्रों के समान ही समझने चाहिए। उनमें से नीलनामक वर्षधर पर्वत निषध पर्वत के समान है, रम्यक क्षेत्र हरिवर्ष क्षेत्र के बराबर है और रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत महाहिमवान् पर्वत-समान विस्तार वाला हैं। हैरण्यवतवर्ष हैमवत क्षेत्र के बराबर है और शिखरी नामक पर्वत का विस्तार क्षुद्रहिमवान् पर्वत के बराबर है। ऐरवत क्षेत्र भरत क्षेत्र के बराबर विस्तार वाला है। इस प्रकार जितना विस्तार भरत क्षेत्र का है उतना ही ऐरवतक्षेत्र का भी समझना चाहिए । क्षुद्रहिमवान् पर्वत का जितना विस्तार है, उतनाही विस्तार शिखरी पर्वत का है। हैमवत क्षेत्र का जितना विस्तार है उतना ही विस्तार हैरण्यवत क्षेत्र का है महाहि मवान् पर्वत का जितना विस्तारहै, उतना ही विस्तार रुक्मी नामक पर्वत का है । हरिवर्ष का जितना विस्तार है उतना ही रम्यक क्षेत्र का विस्तार है । निषधपर्वत का जितना विस्तार है, उतनाही नील पर्वत का विस्तार समझना चाहिए। इसी प्रकार शिखरी पर्वत आदि के ऊपर हृदों और पुष्करों का विस्तार भी क्षुद्रहिमवान् आदि पर्वतों पर स्थित हृदों एवं पुष्करों आदि के विस्तार के समान समझना चाहिए ॥ २८॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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