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________________ ६ तत्त्वार्थसूने एवं रीत्या-तद्विगुणत तद्विगुणतयोत्तरोत्तरं क्रमश स्तिगिच्छ केसरि-पुण्डरीक-महापुण्डरीकहूदानामपि स्वयमायामविस्ताराः ऊहनीयाः अवगाहस्तु-सर्वेषां हूदानां दशयोजनान्येवाऽवसेयः । उक्तञ्च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ महापद्मदाधिकारे-८० सूत्रे-"महाहिमवंतस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउमबहे णामं दहे पण्णत्ते दो जोयणसहस्साई आयामेणं एग जोयणसहस्सं विक्खंभेणं दसजोयणाई उव्वेहेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खभविहूणा जा चेव पउमदहस्स वत्तव्वया सा चेव णेयव्वा पउमप्पमाणं दो जोयणाई अट्ठो जाव महाषउमदहवण्णामाई हिरीअ एत्थ देवीजाव पलिओवमटिइया परिवसई" इति महाहिमवतो बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु एको महापद्महूदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, द्वे योजनसहनेजायामेन, एक योजनसहस्रं विष्कम्भेण-दशयोजनानि-उद्वेधेन, अच्छो रत्नमयकूलः एवम्आयामविष्कम्भविहीना या चैव पद्महूदस्य वक्तव्यता-सा चैव ज्ञातव्या पमप्रमाणं द्वे योजने, अर्थों यावद महापद्महदवर्णाभानि, हीश्चात्र देवी यावत्-पल्योपमस्थितिका परिवसति, इति । तदने चोक्तम्-जम्बूप्रज्ञप्तौ षड्दाधिकारे ८३-सूत्रतः ११०-सूत्रपर्यन्तम्-,तिगिछद्दहेणामं दहे पण्णत्ते....चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं, दो जोयणसहस्साई विक्खं भेणं, दसजोयणाई उव्वेहेणं....धिइअ एत्थ देवी पलिओवमहिइया परिवसइ-" इति । तिमिच्छकहूदो नामहूदः प्रज्ञप्तः....चत्वारि योजनसहनाणि आयामेन, द्वे योजनसहले विष्कम्भेण दशयोजनानि उद्वेधेन, धृतिश्चात्र देवी पल्योपमस्थितिका परिवसति इति । तेषु च षट्सु पुष्करेषु उत्तरोत्तरविशालेषु कर्णिकामध्यदेशनिवेशिनः शरत्पूर्णिमा पूर्णचन्द्र चन्द्रिकाधुतिहराः क्रोशायामाः अर्धक्रोशविस्ताराः देशोनक्रोशोत्सेधाः प्रासादाः षड् विलसन्ति, अवगाह सभी हृदों का दस योजन ही है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के महापद्म हृद के प्रकरण में सत्र ८० में कहा है-'महाहिमवंत पर्वत के ठीक बीचोंबीच एक महापम हद नामक ह्द है, उसकी लम्बाई दो हजार योजन की, चौड़ाई एक हजार की, और गहराई दस हजार योजन की कही गई है। वह स्वच्छ है, उसके किनारे रजतमय हैं । इस प्रकार लम्बाई-चौडाई को छोड़ कर शेष वर्णन पाहद के समान ही समझ लेना चाहिए। उसमें स्थित पद्म का प्रमाण दो योजन है अर्थात् यावत् महापमहूद के वर्ण के समान........उस कमल में एक पल्योपम की स्थिति वाली ही देवी निवास करती है । ___ आगे जम्बूद्वीप्रज्ञप्ति में छह हदों के प्रकरण में सूत्र ८३से ११० पर्यन्त में कहा है-तिगिच्छ हृद नामक हृद है जो चार हजार योजन लम्बा है, दो हजार योजन चौड़ा है और दस हजार योजन गहरा है । यहाँ धृति नाम की देवी निवास करती है जिसकी स्थिति एक पल्योपम की है। उत्तरोत्तर विशाल उन छहों पुष्करों की कर्णिका के मध्य भाग में बने हुए, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की चांदनी की कान्ति को भी हरण करने वाले, एक कोस लम्बे, अर्ध कोस विस्तार શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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