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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. ५ सू. १४ नारकाणां प्रकारान्तरेणापि परस्पर दुःखोत्पादनम् ५९९ भवन्ति । नरकक्षेत्रानुभावजनितादशुभात्-पुद्गलपरिणामात् पूर्भवाऽनुबद्धपरस्परवैरानुस्मरणाच्च नरकेषु नारकाणां परस्परोत्पादितानि दुःखानि भवन्ति । तत्र-ये खलु नारकाः मिथ्यादृष्टयो भवन्ति, ते भवप्रत्यय बिभङ्गानुगतत्वादवलोक्य परस्पर मेवाऽभिघातादिभिर्दुःखानि समुदीरयन्ति, ये पुनः-सम्यग्दृष्टयो नारका स्तेतु-संज्ञित्वादेव पूर्वजन्मकृताऽनाचारकारिणं स्वात्मानमेवाऽनुशोचन्तो नरकक्षेत्रस्वभावजनितानि दुःखानि सहमानाः परान् अनिघ्नन्तः परैरुत्पादितवेदनाःसन्तोऽपि नितान्तदुःखिनः स्वायुषः क्षयमपेक्षन्ते, न पुनस्ते ऽन्यनारकाणां दुःखवेदनाः समुत्पादयन्ति, तेषामवधिज्ञानस्य विभङ्गानात्मकत्वात् ।। किन्तु-न केवलं तेषां परस्परोदीरणजनितान्येव दुःखानि भवन्ति, अपितु--सहजान्यपि दुःखानि भवन्ति । नरकक्षेत्रस्य-दुःखात्मकस्वभावत्वात् , न हि तत्र किञ्चित् सुखमात्राऽप्यस्ति उपपातादिहेतुकं तत्रत्यं सुखमपि-बहुतरदुःखसंमिश्रितत्वाद्-अल्पकालस्थायित्वाच्च विषसम्पृक्त मध्वनादिवत् दुःखमेवावसेयम् । तस्मादेवंविधनरकक्षेत्रानुभावनिष्पादितपुद्गलपरिणामाच्च नारका दुःखमनुभवन्ति । ___ तथाचा-ऽतिशयशोतो-ष्ण-क्षुत्तषादिः खलु नरकक्षेत्रस्वभावजनितः पुद्गलपरिणामो भवति । नरक क्षेत्र के स्वाभाविक अनुभाव से उत्पन्न होने वाले अशुभ पुद्गल परिणामसे तथा पूर्वभव में बाँधे हुए पारस्परिक वैर का स्मरण हो जाने से नरकों में नारक जीव परस्पर में एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं। जो नारक जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं वे विभंग ज्ञान से युक्त होने के कारण आपस में एक दूसरे को देखते ही परस्पर आघात-प्रत्याधात करने लगते हैं और दुःख उपजाते हैं, किन्तु जो नारक सम्यदृष्टि होते हैं, वे संज्ञी होने के कारण पूर्व जन्म में अनाचार करने वाले अपने आत्मा का ही विचार करते हैं, उसके लिये पश्चात्ताप करते हैं और नरक क्षेत्र के स्वभाव से उत्पन्न दुःखों को सहन करते रहते हैं। वे दूसरे नारकों को आघात नहीं करते, सिर्फ दूसरों के द्वारा उत्पादित वेदना को सहन करते हैं और नितान्त दुःखी रहते हुए अपने नरकायु रूप की प्रतीक्षा करते रहते हैं, वे अपनी ओर से दूसरे नारकों को दुःख वेदना उत्पन्न नहीं करते हैं क्यों कि उनका अवधिज्ञान कु-अवधिज्ञान (विभंगज्ञान) नहीं होता है। नारक जीवों को परस्पर में उदीरित दुःख ही नहीं होते वरन् सहज दुःख भी होते हैं, क्यों कि नरक भूमि स्वभाव से ही दुःखमय होती है वहाँ सुख का लेश भी नहीं होता उपपात आदि के कारण वहाँ होने वाला सुख भी बहुतर दुःख से मिश्रित होने के कारण विषमिश्रित मधु या अन्न के समान दुःखरूप ही समझना चाहिए । इस प्रकार नरकक्षेत्र के अनुभाव से उत्पन्न पुद्गल परिणाम से भी नारक जीव दुःख का अनुभव करते हैं। अतिशय शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि नरक क्षेत्र के स्वभाव से उत्पन्न होने वाला શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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