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________________ ६०० तत्त्वार्यसूत्रे अनुपशान्तशुष्कन्धनो-पादाना-ऽनलेनेव तीक्ष्णेन व्याप्तक्षुधाग्निना दंदह्यमानशरीराः प्रतिसमयमा हारयन्तस्ते नारकाः सर्वपुद्गलानपि भक्षयेयुः, तीव्रया च सततानुषक्तया तृषया शुष्ककण्ठोष्ठ-तालु जिह्वाः सर्वानपि सम्पूर्णान् समुद्रान् अहर्विकया पिबेयुः ।। किन्तु-तथापि तृप्तिं नासादयेयुः क्षुधा-पिपासेच तेषां नारकाणां वद्धयातामेवेत्येवं प्रभृतीनि नरकक्षेत्रानुभावप्रत्ययानि भवन्ति पुद्गलपरिणामफलानि, परस्परोदीरितदुःखानि च नारकाणां भवन्ति । तथाहि-नारकेषु तावद् अवधिज्ञानम् अशुभहेतुकं मिथ्यादर्शनयोगाच्च विभङ्गज्ञानं भवति । तत्र-मिथ्यादृष्टीनां विभङ्गज्ञानम् , तदितरेषां नारकाणामवधिज्ञानम् , भावदोषोपघातात्पुनस्तेषां तदपि दुःखकारणमेवोपजायते । तेन हि-अवधिज्ञानेन सर्वतः-समन्तात् ते नारका स्तिर्यगू मधश्च दूरादेव दुःखहेतून् सततमवलोकयन्ति । यथा-खलु “अहि-नकुलम् , अश्वमाहिषम् , काकोलकञ्च-" जन्मनैव परस्परबद्धवैरं भवति, तथैव-नारकाः अपि परस्परं बद्धवैरा भवन्ति, यथावा-अपरिचितकुक्कुरानवलोक्य श्वानो भूभङ्गपूर्वक क्रुध्यन्तो घुरघुरायन्ते--परस्पर माघातं कुर्वन्ति च, तथैव-तेषां नारकाणा मवधिज्ञानेन दूरत एव परस्परं विलोकयताम् तोब्रानुशयो दुरन्तो भवहेतुकः कोप उपजायते । परिणमन है । सूखा ईधन मिलते रहने से जैसे अग्नि शान्त नहीं होती बल्कि बढ़ती जाती है, उसी प्रकार नारक जीवों का शरीर तीब्र क्षुधा की आग से जलता ही रहता है। प्रतिसमय आहार करते-करते नारक जीव कदाचित् समस्त पुद्गलों का भक्षण कर ले और निरन्तर बनी रहने वाली तीन पिपासा के कारण सूखे कंठ, होठ, तालु एवं जिह्वा वाले वे नारक कदाचित् समस्त समुद्रों का जल पी डाले तो भी उन्हें तृप्ति नहीं हो सकती । ऐसा करने से उनकी भूख और प्यास में वृद्धि ही होगी ! ऐसी उत्कट भूख और प्यास वहाँ होती है, यह सब परिणमन नरक क्षेत्र के प्रभाव से होती है। इस क्षेत्र प्रभाव जनित वेदना के अतिरिक्त नारक जीवों को परस्पर जनित वेदना भी होती है। नारक जोवों को अशुभ भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। जो मिथ्यादृष्टि नारक हैं, उन्हें विभंगज्ञान होता है और सम्यक्दृष्टि नारकोंको अवधिज्ञान होता है भावदोष के कारण उनका वह ज्ञान भी दुःख का ही कारण होता है उस ज्ञान से नारक जीव ऊपर, नीचे और तिरछे-सभी ओर दूर से ही दुःख के कारणों को सदा देखते हैं । जैसे सर्प और न्यौला, अश्व और महिष तथा काक और उलूक जन्म से ही वैरी होते हैं । उसी प्रकार नारक भी स्वभाव से ही एक दूसरे के वैरी होते हैं जैसे किसी अपरिचित कुत्ते को देखकर दूसरे कुत्ते एकदम क्रुद्ध हो उठते हैं और घुरघुराते हुए उस पर हमला कर देते हैं, उसी प्रकार नारकों को, एक दूसरे को देखते ही तीब्र भवहेतुक क्रोध उत्पन्न होता है । तब क्रोध से प्रज्वलित चित्त हो कर, दुःख समुद्घात आत अचानक झपटे हुए कुत्तों શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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