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________________ तार्थसूत्रे ऽन्योदीरितदुःखा तथाविधाश्च नारका भवन्ति । अथ कथं तावद नारकाः परस्परोत्पादित दुःखा भवन्तीतिचे दुच्यते - भवप्रत्ययेना - ऽवधिज्ञानेन मिथ्यादर्शनोदयाद् - विभङ्गज्ञानेन च दूरादेव दुःख हेतून विज्ञायोत्पन्नदुःखा भवन्ति । एवं सान्निध्ये सति परस्परावलोकनाच्च प्रज्वलितकोपानलाः, पूर्वभवबद्धवैरानुस्मरणाच्चाऽतितीव्रानुबद्धवेराः, श्वान - शृगालवत् अश्वमहिषादिवदवा परस्पराभिघाते प्रवर्तमानाः स्ववैक्रियक्रिययोत्पादिताऽसि - पट्टिश-परशु - भिण्डिपाल-शक्ति-तोमर- कुन्ता ऽऽयोधनादिभिः परस्परस्याऽति तीव्रं दुःखमुदीरयन्ति समुत्पादयन्तीति भावः || सूत्र १४ ॥ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः – पूर्व रत्नप्रभादिसप्तसु पृथिवीषु नरकाssवासा नारका जीवाश्च यथायथम्अशुभतर कृष्णादि लेश्यास्पर्शादिपरिणाम-भवधारणीयो- त्तर वैऋियशरीरं तीव्रादि वेदना-विक्रिया स्वप्रदर्शनपूर्वकं प्ररूपिताः - सम्प्रति - नारकाणां पूर्वभवानुबद्धवैरानुस्मरणादिभिरपि परस्परदुःखो - त्पादनं भवतीति प्ररूपयितुमाह- रूपप्रद " अण्णमण्णो दीरिय दुक्खाय - " इति । अन्योऽन्योदीरितदुःखाश्च- अन्योऽन्यस्य परस्परस्यो-दीरितमुत्पादितं दुःखं येषां - यैर्वा ते ऽन्योऽन्योदीरीतदुःखाः, तथाविधाश्चापि नारका उनको अन्य प्रकार से भी दुःख का अनुभव होता है - नारक जीव परस्पर में भी एक दूसरे को दुःख उपजाते रहते हैं । नारक जीव क्यों आपस में दुःख उत्पन्न करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान के द्वारा और मिथ्यादर्शन के उदय से विभंगज्ञान द्वारा दूर से ही दुःख के कारणों को जान कर परस्पर में एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं । इसी प्रकार जब एक नारक दूसरे नारक के निकट आता है तो एक की दूसरे पर नजर पड़ते ही - उसकी क्रोधाग्नि भभक उठती है । उन्हें पूर्वभव में बाँधे हुए वैर का स्मरण हो जाता है, वे परस्पर तोत्र वैरभाव युक्त हो जाते हैं । तब वे श्वान और श्रृंगाल की तरह तथा अश्व और महिष की भाँति परस्पर में आघात - प्रत्याधात करने लगते हैं 1 अपनो विक्रियाशक्ति के द्वारा बे असि, पट्टिश, परशु, भिण्डिपाल, शक्ति, तोमर, कुन्त एवं अयोधन आदि शास्त्रों की विक्रिया करके परस्पर में एक दूसरे को अत्यन्त तीव्र दुःख की उदीरणा करते हैं - दुःख उत्पन्न करते हैं । ॥ १४ ॥ तत्वार्थनियुक्ति – इससे पहले नारक जीवों की प्ररूपणा की गई है । सात नरकभूमियों में कितने-कितने नारकावास हैं, उनमें कहाँ कौन-सी अशुभ लेश्या होती है, उनके स्पर्श आदि परिणाम भवधारणीय एवं उत्तर वैक्रिय शरीर, तीव्र वेदना, विक्रिया आदि का निरूपण किया जा चुका है । यहाँ यह बतलाते हैं कि नारक जीव पूर्वभव में बाँधे हुए वैर का स्मरण करके आपस में भी एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं । - नारक जीव आपस में भी एक-दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं । तात्पर्य यह है कि ५९८ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ 1
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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