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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ५ सू. ३ ज्ञानावरणदर्शनावरणयोर्बन्धकारणनिरूपणम् ५६३ एवं दर्शनविषयाः प्रत्यनीकतादयोऽपि दर्शनेन सह संयोजनीयाः । तत्र ज्ञानावरणं कर्म प्रत्यनीकतादिभि षभिः कारणै र्बध्यते तच्च ज्ञानस्यावरणरूपै पञ्चभिः प्रकारै स्तस्य भोगो भवति । दर्शनावरणं च दर्शनविषयैः पूर्वोक्तैरेव षड्भिः कारणैर्बध्यते चक्षुर्दशनावरणादिभिश्चतुर्भिः, निद्रादिभिः पञ्चभिश्च, एवं नवभिः प्रकारैस्तस्य भोगो भवतीतिभावः । तत्र प्रथमं ज्ञानावरणकर्मबन्धस्य षट् कारणानि व्याख्यायन्ते, तथा हि-ज्ञानप्रत्यनीकतया अत्र ज्ञानस्य ज्ञानं पञ्चविधं - मतिश्रुतावधिमनः पर्यवकेवलभेदात् तत स्तस्य ज्ञानस्य पञ्चविधस्य धर्मधर्मिणोरभेदेन तद भेदात् पञ्चविधज्ञानवतां वा प्रत्यनीकता सामान्येन प्रतिकूलता, सा, तथा, तया, ज्ञानस्य ज्ञानिनो वा प्रतिकूलतयेत्यर्थः १, ज्ञाननिह्यतया ज्ञानस्य श्रुतादेः श्रुतगुरूणां वा या निह्नवता अपलपनं सा तथा तया, तेन ज्ञानस्य ज्ञानदातुगुरोर्वा अपलापेनेत्यर्थः २, ज्ञानान्तरायेण ज्ञानस्य श्रुतस्य अन्तारायः तद् ग्रहणादौ यो विघ्नः स तथा तेन ज्ञानग्रहणप्रतिबन्धक प्रत्यवायेनेत्यर्थः ३, ज्ञानप्रद्वेषेण, ज्ञाने श्रुतादौ श्रुतादि ज्ञानवस्तुसु गुरुषु वा यः प्रद्वेषः अप्रीतिः स तथा तेनेत्यर्थः ४, ज्ञानात्याशातनया ज्ञानस्य श्रुतादेः श्रुतादि ज्ञानिनां वा या अत्याशातना अवहेलना सा तथा तया ५, ज्ञान विसंवादनयोगेन ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा यो विसंवादनयोगः निष्फलता प्रदर्शनव्यापारः स तथा तेन ६, एभिः षइभिः कारणै र्ज्ञानावरणकर्म बध्यते । एवं - दर्शनस्य दर्शनवतां दर्शनसाधनानाञ्च तथाविधाः षट् प्रत्यनीकतादयो नवविध जोडलेना चाहिये । इसी प्रकार दर्शनविषयक प्रत्यनीकता आदि को भी दर्शन के साथ जोड़ लेना चाहिये । यहां प्रथम ज्ञानावरण कर्मबन्धके छह कारणों की व्याख्या की जाती है, ज्ञानप्रत्यनीकता - मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, इस पांच प्रकार के ज्ञान के विषय में अथवा धर्म धर्मो के अभेद से अर्थात् धर्म से धर्मी का ग्रहण करने से मति श्रुतानि पांच ज्ञान वालों की प्रत्यनीकता - अर्थात् श्रुतज्ञानादिक विरुद्ध आचरण करने से या श्रुतज्ञानादिवालों में विरुद्ध आचरण करने की प्रवृत्ति रखने से तथा ज्ञान के निह्नव करने से कोई किसी से पूछे या श्रुतज्ञानादिका साधन मांगे, तब ज्ञान या ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि मैं नहीं जानता अथवा मेरे पास वह तु ही नहीं है यह ज्ञान निहव है - इस प्रकार के ज्ञान निहव से, अथवा श्रुतप्रदाता गुरुजनों के निह्नव से - अपलाप से, तथा ज्ञानांतराय से कलुषित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुँचाने से तथा ज्ञानप्रद्वेष से श्रुतादिक में अथवा श्रुतादिज्ञान वाले गुरुजनों में अप्रीति रखने से, तथा ज्ञानात्याशातना से - श्रुतादिज्ञान की या श्रुतादिज्ञानशालीजनों की अवहेलना करने से तथा ( णाणविसंवायणाजोगेणं) ज्ञान और ज्ञानिजनों को निष्फल बतलाने की चेष्टा करते रहने से, इन छहकारणों से ज्ञानावरणकर्म का बंध होता है । इसी प्रकार दर्शन के दर्शनवालों के तथा दर्शन के साधनों की भी प्रत्यनीकला आदि શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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