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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ४ सू. २७ ञ्चारादिविषयमधिकृत्य प्ररूप्यते – “जोइसिया मेरुपयाहिया --" इत्यादि । ज्योतिष्काः– चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाः पञ्चविधा मनुष्यक्षेत्रे - मानुषोत्तरपर्वतपर्यन्तवर्तिनि मनुष्यलोके आयामविष्कम्भाभ्यां पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमाणे मेरुप्रदक्षिणा : मेरोः प्रदक्षिणाः नापसव्याः सन्तः मेरुपर्वतस्य प्रादक्षिण्यक्रमेण सततं भ्रमन्तो नित्यगतयो भवन्ति । कालविभागहेतवः-समयावलिकोच्छ्वासप्रश्वासस्तो कलवनालिका मुहूर्तादिकालविशेषविभाजकाश्च भवन्ति । चन्द्रसूर्यादिगति सञ्चारेणैव घटिका पल - क्षण - प्रहर - रात्रि -- पक्ष-- मास - वर्षा - ऽयन - कल्पादि व्यवहार: सम्भवति, नाऽन्यथा । -- अतएव - चन्द्रसूर्यादयो ज्योतिष्का देवाः कालविभागहेतवः सन्ति । मनुष्यक्षेत्रादबहिः प्रदेशे तु चन्द्रसूर्यादयो ज्योतिष्कदेवा नो सञ्चरन्ति, अपितु - अवस्थिता एव तिष्ठन्ति । तथाच - जम्बूद्वीपे धातकीखण्डद्वीपे पुष्करद्वीपार्धेच सार्धद्वयद्वीपप्रमाणे मनुष्यक्षेत्रे मानुषोत्तर पर्व - ताभ्यन्तर एव ज्योतिष्काश्चन्द्रसूर्यादयो भ्रमन्ति मानुषोत्तरपर्वताद् बहिर्भागेतु-न भ्रमन्ति, केवलमवस्थिता सन्ति । तत्र - ध्रुवतारायाः स्थिरत्वात् मेरोः प्रादक्षिण्यक्रमेण सञ्चरणाऽभावेऽपि, अन्यासां ताराणां - चन्द्रसूर्यादीनाञ्च ज्योतिष्काणां मेरोः प्रदक्षिणतयैव सञ्चरणशीलतया तदभिप्रायेणैव गतिप्ररूपणमवगन्तव्यम् । यद्वा-केचन चन्द्रसूर्यादयो ज्योतिष्काः मेरुप्रदक्षिणतया नित्यगतयः केचन पुनर्धुवताविषय में कहते हैं चन्द्र, सूर्य ग्रह नक्षत्र और तारा, ये पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव मनुष्य क्षेत्र में अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त के पैंतालीस लाख योजन लम्बाई चौड़ाई वाले अढ़ाई द्वीपों में मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए निरन्तर गति करते रहते हैं । यही ज्योतिष्क देव काल के विभाग के कारण हैं अर्थात् समय, आवलिका, श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव और मुहूर्त्त आदि काल के भेदों के कारण होते हैं । चन्द्र सूर्य आदि के संचार से ही घड़ी, पल क्षण, प्रहर दिन, रात, पक्ष मास, अयन, वर्ष कल्प आदि का व्यवहार होता है अन्यथा व्यवहार नहीं होसकता । इस प्रकार चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क देव कालविभाग के हेतु हैं । ज्योतिष्कदेवानां गतिसञ्चारादिनिरूपणम् ५३७ " हाँ, यह ज्योतिष्क देब मनुष्य क्षेत्र से बाहर संचार नहीं करते, किन्तु स्थिर रहते हैं । इस प्रकार जम्बूद्वीप में, धातकी खण्ड द्वीप में तथा आधे पुष्करद्वीप में, यों अढ़ाई द्वीप परिमित मनुष्यक्षेत्र में, मानुषोत्तर पर्वत के भीतर-भीतर ही चन्द्र सूर्य आदि चलते हैं । उससे आगे भ्रमण नहीं करते - अवस्थित रहते हैं । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ ध्रुव नामक तारा स्थिर है । वह मेरु की प्रदक्षिणा करता हुआ संचार नहीं करता है । किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य सभी तोर और चन्द्र सूर्य आदि मेरु की परिक्रमा करते हुए ही संचार करते हैं, उन्हीं को लक्ष्य में रख कर गति की प्ररूपणा की गई है । ૮
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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