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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २६ भवनपत्यादि देवानां विषयसुखभोगप्रकारनिरूपणम् ५३१ __ छाया- "ईशानान्ता देवाः कायपरिचारणा अच्युतान्ताः स्पर्शरूपशब्दमनः परिचारणा:कल्पातीताः-अपरिचारणाश्च" ॥ २६ ॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे भवनपत्यादिसर्वार्थसिद्धपर्यन्तदेवेषु यथायोग्यमिन्द्राणां प्ररूपणं कृतम् , सम्प्रति-देवानां तेषां विषयसुखभोगप्रकारमाह-"ईसाणंता-" इत्यादि । ईशानान्ताः-असुरकुमारादिदशभवनपतिकिन्नरप्रभृत्यष्टवानव्यन्तरचन्द्रसूर्यादिपञ्चश्योतिकसौधर्मेशाना देवास्तावत् कायपरिचारणाः, परिचारणं प्रवीचारः मैथुनोपसेवनम् कायेन-शरीरेण परिचारणं येषां ते कायपरिचारणाः कायप्रवीचाराः मनुष्यवत् शरीरेण विषयोपभोगं कुर्वन्ति । किन्तु-अच्युतान्ताः-सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र-सहस्रारा-ऽऽनत,प्राणता-ऽऽरणा,-च्युतान्ता दशवैमानिकाः कल्पोपपन्नका देवाः— स्पर्श-रूप-शब्द-मन:परिचारणाः स्पर्श-रूप-शब्द-मनःसु परिचारणं प्रवीचारो येषां ते तथाविधा भवन्ति । तत्रसनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पस्थिता देवाः देवाङ्गनाः स्पर्शमात्रादेव विषयभोगसुखमनुभवन्तः परां प्रीतिमुपलभन्ते । एवं-तद्वयकल्पस्थिता देव्योऽपि तथैव-देवाङ्गस्पर्शमात्रादेव विषयोपभोगसुखमनुभवन्ति । ब्रह्मलोक-लान्तक–देवाश्च देवाङ्गनानां शृङ्गारपूर्णविलास मनोज्ञवेषभूषारूपाऽवलोकनमात्रादेव विषयोपभोगसुखमनुभवन्ति महाशुक्र-सहस्रारकल्पस्थिताः देवास्तु-दिव्याङ्गनानां मनोहारिमधुरसङ्गीतमृदुमन्दहासोल्लासकलितललिताभरणवचनालापश्रवणमात्रादेव परां प्रीतिमासादयन्ति । सूत्रार्थ --- 'ईसाणंता देवा कायपरियारणा' इत्यादि सूत्र-२६॥ ईशानकल्प तक के देव काय से परिचारणा करते हैं, अच्युतकल्प तक के देव स्पर्श, रूप, शब्द और मन से परिचारणा करते हैं, कल्पातीत देव परिचारणा रहित होते हैं ॥२६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में भवनपति से लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त के देवों में यथायोग्य इन्द्रों की प्ररूपणा की गई है । अब देवों में विषयसुख को भोगने का प्रकार बतलाते हैं असुरकुमार आदि दस भवनपति, किन्नर आदि आठ वानव्यन्तर, चन्द्र-सूर्य आदि पाँच ज्योतिष्क तथा सौधर्म और ईशान देवलोक के देव काय से मनुष्यों के समान प्रवीचार अर्थात् मैथुनसेवन करते हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्र ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत पर्यन्त दस देवलोकों के वैमानिक स्पर्श, रूप, शब्द और मन से प्रवीचार करते हैं । अर्थात् सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देव देवांगनाओं के स्पर्शमात्र से विषयभोग के सुख का अनुभव करके परम प्रीति प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार इन दोनों कल्पों में आने वाली देवियाँ देवों के स्पर्श से ही विषयसुख का अनुभव करती हैं । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देव देवांगनाओं के शृङ्गारपरिपूर्ण विलास को, मनोज्ञ वेषभूषा को तथा रूप को देखने मात्र से रतिजन्य सुख की अनुभूति करते हैं। महाशुक्र શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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