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________________ तत्त्वार्थसूत्रे आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युतकल्पवासिनो देवाः पुनः स्वाङ्गनामनःसङ्केतमात्रादेव परमसुखमनुभवन्ति कल्पातीताः-नदप्रैवेयक–पञ्चानुत्तरौपपातिकास्तु अपरिचारणाश्चा-ऽविद्यमान परिचारणं प्रवीचारो येषां तेऽपरिचारणाः अप्रवीचारा मनसापि मैथुनसुखानुभवसहिता न भवन्ति । तेषां हि-कल्पवासिभ्योऽपि-देवेभ्यः परमप्रकृष्टहर्षलक्षणं विलक्षणं सुखमुत्कृष्टं वर्तते, तेषां कदाचिदपि कामसम्भवाभावेन कामसम्भववेदनाप्रतीकाररूपप्रवीचारासम्भवात्. । तेषामहमिन्द्रत्वादनवच्छिन्नसुखस्यैव सर्वदा सद्भावात् ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः- पूर्व तावद् भवनपत्यादिसर्वार्थसिद्धपर्यन्तानां चतुर्विधदेवानां यथायथमिन्द्रादयः प्रतिपादिताः , सम्प्रति-ते खलु सर्वे देवास्त्रिधा भवन्ति केचन-सदेविकाः-सप्रवीचाराश्च, केचन पुनरदेविकाः-सप्रवीचाराश्च, अन्ये पुनः-अदेविका अप्रवीचाराश्चेत्येवं त्रिविधानपि तान्देवान् क्रमशः प्ररूपयितुमाह "ईसाणंता देवा कायपरियारणा, अच्चुयंता फासरूव-सहमणपरियारणा,कष्पाईया अपरियारणा य-,, इति. । तत्र-ईशानान्ताः-असुरकुमारादिदशभवनपतिमारभ्येशानपर्यन्ताः पञ्चविंशतिसंख्यका देवाः कायपरिचारणाः-कायेन परि और सहस्रार कल्प में स्थित देव देवियों के मनोहर एवं मधुर संगीत, मृदु मंद मुस्कराहट से युक्त आभूषणों की ध्वनि तथा वचनालाप को श्रवण करके ही काम की तृप्ति प्राप्त कर लेते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों के देव अपनी-अपनी देवियों के मन के संकल्प मात्र से ही कामभोग संबंधी परम सुख का अनुभव करते हैं। नौ ग्रैवेयकों और पाँच अनुत्तर विमानों के कल्पातीत देव प्रविचारणा रहित होते हैं अर्थात् वे मन से भी मैथुन सेवन नहीं करते हैं। उन कल्पातीत देवों को कल्पोपपन्नक देवों की अपेक्षा भी परमोत्कृष्ट हर्ष रूप सुख प्राप्त रहता है जो विषय जनित सुख से भी उत्तम कोटि का और विलक्षण होता है । उनका वेदमोहनीय इतना उपशान्त रहता है कि उनमें कामवासना उत्पन्न ही नहीं होती और जब कामवासना ही उत्पन्न नहीं होती तो कामवेदना का प्रतीकार करने के लिए प्रवीचार का विचार भी किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है, उन अहमिन्द्र देवों को निरन्तर सन्तोष का सुख ही होता रहता है ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले भवनपतियों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के चार प्रकार के देवों के यथायोग्य इन्द्र आदि का विचार किया गया है । अब यह प्रतिपादन करते हैं कि वे सब देव तीन प्रकार के होते हैं। कोई-कोई सदेवीक (देवियों वाले) और सप्रवीचार, कोई अदेवीक और सप्रवीचार और कोई-कोई अदेवोक और अप्रवीचार । इन तीनों प्रकार के देवों की क्रमशः प्ररूपणा करते हैं असुरकुमार आदि दस भवनयतियों से लेकर ईशान तकके पच्चीस प्रकार के देव काय શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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