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दीपिकाfनयुक्तिश्च अ० ४ सू० १४
सर्वभूतादिषु मैत्र्यादिभावनानिरूपम् ४७९ वनाः प्ररूपयितुमाह “सव्वभूय-गुणाहिग- किलिस्समाणा विणेसुं मित्तिपमोयकारुण्ण मज्झत्थाई - " इति ।
सर्वभूतगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थानि, इति । तत्र - सर्वभूतेषु सर्वप्राणिषु मैत्रीं भावयेत् गुणाधिकेषु स्वापेक्ष्यया - sधिकगुणवत्सु प्रमोदं - हर्षातिशयं भावयेत् क्लिश्यमानेषु क्लेशमनुभबत्सु च कारूण्य - दयादाक्षिण्यं भावयेत्, अविनयेषु - अविनीतेषु राठेषु च माध्यस्थ्यम् - औदासीन्य मुपेक्षावृत्ति भावयेत् एवंविध मैत्र्यादिभावनाभिः सर्वैः सह वैरादिकं विनष्टं भवतीति भावः ।
तथाचोक्तम् — “सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु दयापरत्वम । माध्यस्थ्यमावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ? || १ || इति ॥ १४ ॥
तत्त्वार्थनिर्युक्तिः - पूर्वं प्राणातिपातादिविरतिलक्षणपञ्चव्रतानां स्थिरतार्थ सर्वसाधारणतया हिंसादिषु ऐहिक - पारलौकिका पायावद्यदर्शनरूपा भावना दुःखभावना च प्ररूपिता, सम्प्रतितेषामेव व्रतानां परम्परया स्थिरतासम्पादनार्थं सर्वभूतादिषु मैत्र्यादिभावनाः प्रतिपादयितुमाह गया; अब उन्हीं महाव्रतों की दृढता के लिए सवप्राणियों पर मैंत्री आदि भावनाओं की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं
सर्व प्राणियों, गुणाधिकों, क्लिश्यमान जीवों और अविनीतों पर क्रमशः मैत्री, प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ भावना होनी चाहिए । अर्थात् सभी प्राणियों पर मैत्रीभावना धारण करे, जो अपनी अपेक्षा अधिक गुणवान् हैं, उनके प्रति प्रमोद - हर्षातिशय की भावना धारण करें, जो अपनो अपेक्षा अधिक गुणवान् हैं, उनके प्रति प्रमोद - हर्षातिशय की भावना धारण करें । जो जीव दुःख का अनुभव कर रहे उन पर करुणाभावना रक्खें और जो अविनीत अर्थात् शठ हैं, अपने से विरुद्ध विचार और व्यवहार करते हैं, उसके प्रति मध्यस्थभाव धारण करे | तात्पर्य यह है कि इस प्रकार मैत्री आदि भावनाओं से सब के प्रति वैर-विरोध नष्ट हो जाता है । कहा भी है- 'सत्त्वेषु मैत्रीं गुणीषु प्रमोदमित्यादि ।
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हे देव ! मेरी आत्मा प्राणिमात्र पर मैत्रीभाव धारण करे, गुणी जनों को देख कर प्रमोद का अनुभव करे, दुखी जनों पर करुणाभाव धारण करे और विपरीत व्यवहार करने वालों पर मध्यस्थभाव धारण करें ॥ १४ ॥
तत्त्वार्थनियुक्ति — पहले प्राणातिपातविरति आदि पाँच व्रतों को स्थिरता के लिए सामान्य रूप से सभी व्रतों से सम्बन्ध रखने वाली दुःखभावना का निरूपण किया गया, जिसमें यह बतलाया गया है कि हिंसा आदि का आचरण करने से इसलोक और परलोक में दुःख की प्राप्ति होती है । अब उन्हीं व्रतों की परम्परा से स्थिरता के लिए मैत्री आदि भावनाओं का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧