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________________ ક૭૮ तत्वार्यसूत्रे इत्येवं चत्वारो भङ्गाः-सुचीर्णकर्मसुखफलविपाकानां बोध्याः । संवेद्यते-संवेग्यते संसाराऽसारताप्रदर्शनेन मोक्षाभिलाषउत्पाद्यतेऽनयेति संवेदनी-संवेगिनी । तत्र-या कथा संसारस्याऽसारतां प्रदा भव्यजीवेषु मोक्षाभिलाषां जनयति, सा संवेगिनी बोध्या, यथा-मल्लीकुमारी स्वस्या मनुरक्तान् षडपि भूमिपालान् विज्ञाय तेभ्यः संसारासारतां प्रदर्य-विनीय मोक्षाभिलाषं जनयामास । तथाचोक्तम्-“यस्याः श्रवणमात्रेण मुक्तिवाञ्छा प्रजायते । संवेदनी यथा मल्ली षड्नृपान् प्रत्यबोधयत् " ॥१॥ निर्वेद्यते विषयभोगेभ्यो विरज्यते श्रोताऽनयेति निर्वेदनी, तथाचोक्तम्“यदाकर्णनमात्रेण वैराग्यमुपजायते । निर्वेदनी यथा शालिभद्रो वीरेण बोधितः-" ॥१॥ यस्याः कथायाः श्रवणमात्रेणैव वैराग्यमुपजायते सा निर्वेदनीकथा-धर्मकथा प्रोच्यते, यथा-भगवान् महावीरः शालिभद्रं प्रतिबोधितवान् इति ॥१३॥ मूलसूत्रम् – “सव्वभूए-गुणाहिग-किलिस्समाणाविणेएK मित्ति-प्पमोयकारुण्णमज्झत्थाई-,' ॥१४॥ छाया- "सर्वभूत-गुणाधिक-क्लिश्यमाना- विनयेषु मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि ॥१४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-हिंसादिनिवृत्तिलक्षणपञ्चव्रतसाधारणतया प्राणातिपातादिषुइहाऽमुत्रे घोरदुःखभावना च प्ररूपिता, सम्प्रति तद्वतस्यैव दाार्थ सर्वसत्त्वादिषु मैत्र्यादिभा जो कथा संविग्न को अर्थात् संसार को असारता प्रदर्शित करके मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न करे वह संवेगिनी अथवा संवेदिनी कथा कहलाती है। जैसे राजकुमरी मल्ली ने अपने ऊपर अनुरक्त छह राजाओं को संसार की असारता दिखला कर और समझाकर उनमें मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न कर दी थी। कहा भी है जिस कथा के श्रवण मात्र से मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है, वह संवेदिनी कथा कहलाती हैं । जैसे मल्ली कुमारी ने छह राजाओं को प्रतिबोध दिया ॥१॥ जिस कथा के द्वारा श्रोता विषयभोगों से विरक्त होता हैं वह निर्वेदनी कथा कहलाती है । कहा भी है-- जिस कथा को सुनने से वैराग्य की उत्पत्ति हो, वह निर्वेदिनी कथा है जैसे भगवान् महावीर ने शालिभद्र को प्रतिबोध दिया था ॥१॥ सूत्र- ॥१३॥ सूत्रार्थ--'सव्वभूए गुणाहिग' इत्यादि सूत्र-१४ समस्त प्राणियों पर मैत्री भावना, अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद भावना, दुःखी प्राणियों पर करुणाभावना और अविनीतों पर माध्यस्थभावना रखनी चाहिए ॥१४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में हिंसा आदि पाँचों पापों की निवृत्तिरूप पाँच महावतों की सामान्य प्राणातिपात आदि में इह-परलोक में घोर दुःखभावना का निरूपण किया શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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