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________________ दीपिका नियुक्तिश्च अ०४ सू० १३ णदृढताभवतीति भावः । उक्तञ्च - स्थानाङ्गे – ४ – स्थाने २ - उद्देशके २८२-सूत्रे - संवेगिणीका चव्विा पण्णत्ता, तंजहा - इहलोगसंवेगिणी, परलोगसंवेगिगी, आयसरीरसंवेगिणी, परसरीरसंवेगिणी । णिव्वेयणी कहा चउब्विहा पण्णत्ता, तंजा- इहलोगे दुच्चिरणा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवति ॥ १ ॥ इहलो दुच्चिन्ना कम्मा पर लोगे दुहफल विवागसंजुत्ता भवति || २ || परलोगे दुच्चिष्णा कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवति || ३ || परलोगे दुच्चिण्णा कम्मा परलोगे दुहविवागफलसंजुत्ता भवंति ॥४॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भषंति ॥१॥ इहलोगे सुचिणा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति - ||२|| एवं चउभंगो - " सर्वव्रतसामान्य भावनिरूपणम् ४७७ संवेगिनीकथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - इहलोकसंवेगिनी, परलोकसंवेगिनी, आत्मशरीरबेगिनी, परशरीरसंवेगिनी । निर्वेदिनीकथा चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - इह लोके दुश्चीर्णानि कर्माणि इहलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ १ ॥ इह लोके दुखीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ २॥ परलोके दुखीर्णानि कर्माणि इह लोके दुःखफलविपाक संयुक्तानि भवन्ति ||३|| परलोके दुखीर्णानि कर्माणि परलोके दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ||४|| इहलोके सुखी - र्णानि कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ | १ | इह लोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ २॥ एवं चतुर्भगः, तथाच - परलोके खुचीर्णानि कर्माणि इहलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ ३ ॥ परलोके सुचीर्णानि कर्माणि परलोके सुखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति ॥ ४ ॥ स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के दूसरे उद्देशक के सूत्र २८२ में कहा है संवेगिनी अर्थात् वैराग्यवर्द्धक कथा चार प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार है(१) इहलोकसंवेगिनी ( २ ) परलोकसंवेगिनी (३) आत्मशरीरसंवेगिनी और ( ४ ) परशरीरसंबेगिनी । निर्वेदिनी कथा चार प्रकार की कही गई है । वह इस प्रकार है - ( १ ) इस लोक में दुश्चीर्ण कर्म इसलोक में दुःखरूप फलविपाक से संयुक्त होते हैं (२) इस लोक में दुश्चीर्णकर्म परलोक में दुःखरूप फलविसे संयुक्त होते हैं (३) परलोक में दुचीर्ण कर्म इस लोक में दुःखरूप फलविपाक से संयुक्त होते हैं (४) परलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखरूप विपाक से संयुक्त होते हैं । (१) इस लोक में सुचीर्ण कर्म इस लोक में सुखरूप फलविपाक से संयुक्त होते हैं अर्थात् सुखरूप फल प्रदान करते हैं (२) इस लोक में सुचीर्ण कर्म परलोक में सुखरूप फल प्रदान करते हैं, इत्यादि चारों भंग पूर्ववत् समझ लेने चाहिए । अर्थात् परलोक में सुचीर्ण कर्म इस लोक में सुखरूप विपाक से संयुक्त होते हैं और परलोक में सुचीर्ण कर्म परलोक में सुखरूप फलविपाक से संयुक्त होते हैं, यह दोनों भंग भी समझ लेते चाहिए શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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