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तत्वार्यसने “सन्चभूय-गुणाहिग-किलिस्समाणा विणएK मिनि प्पमोयकारुण्णमज्झत्थाई-" इति । सर्वभूत गुणाधिक क्लिश्यमाना-ऽविनयेषु मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्यानि इति ।
तत्र यथाक्रम सर्वसत्त्वेषु मैत्रीम् गुणाधिकेषु प्रमोदम्-२ क्लिश्यमानेषु कारुण्यम्- ३ अविनयेषु माध्यस्थ्यञ्च भावयेदिति बोध्यम् ।
तत्र मेद्यति स्निह्यनि, इति मित्रम् , तस्य भावो मैत्री परहितचिन्तारूपा सकलप्राणिविषयः आत्मनः स्नेहपरिणामः, प्रमादादन्यथा वा कृतापकरेष्वपि प्राणिषु मित्रतां हृदये निधाय "अहमेतस्य मित्रमस्मि" "एतेच मम मित्राणि सन्ति" इति, नाऽहं मित्रद्रोहित्वं प्रतिपत्स्ये, मित्रद्रोहित्वस्य दुर्जनाश्रयत्वात् ।
तस्मात्-"सर्वप्राणिनोऽहं क्षमे-” इति सर्वसत्त्वान्प्रति भावयेत्, “सम्यग मनोवचनकायैः सर्वसत्त्वानहं सहे" इत्येवं भावनया मित्रता यथार्थतया-ऽऽसाद्यते। ये च मयाऽपकृताः प्राणिन स्तानपि मित्रत्वात् क्षमेऽहम् तथा च सर्वप्राणिषु मम मैत्री वर्तते, न केनापि मम वैरमिति,
स चैष वैरानुबन्धः प्रसृतप्रत्यवायशाखाशतसंबाधो मात्सर्यविषयोदयो भूयो भूयो बिच्छिन्नवीजाङ्कुरप्रसवसमर्थोऽपि तीक्ष्णप्रज्ञाविवेकासिधाराच्छेद्यस्तिरस्कृतनिखिलशेषहेतुरपि मैत्री भावनया निरवशेष समूलघातं प्रतिहन्तव्य इति बोध्यम् । एवं सम्यक्त्वादिगुणाधिकेषु अतिषु प्रमोदं-हर्षातिशयं भावयेत् ।
सब प्राणियों पर मैत्री, अधिक गुणवानों पर प्रमोद, दुःखी जनों पर दया और अविनीतों पर माध्यस्थ्यभाव धारण करना चाहिए ।
जो मेद्यति-स्निह्यति अर्थात् स्नेह करता है, वह मित्र कहलाता है। मित्र के भाव को मैत्री कहते हैं । दूसरे के हित का विचार करना मैत्री है । प्रत्येक प्राणी पर मैत्रीभाव होना चाहिए । प्रमाद से अथवा अन्य किसी कारण से किसी ने अपकार किया हो तो उनके प्रति भी मैत्रीभाव धारण करके ऐसा विचार करना चाहिए-मैं इसका मित्र हूँ, ये मेरे मित्र हैं, मैं अपने मित्र के साथ द्रोह नहीं करूँगा, मित्र से द्रोह करना दुर्जनों का काम है-सत्पुरुषों का नहीं । इस कारण मैं समस्त प्राणियों पर क्षमाभाव धारण करता हूँ । इस प्रकार का भाव निरन्तर धारण करने से वास्तविक मैत्रीभाव की प्राप्ति होती है । जिन्होंने मेरा अपकार किया है. वे भी मेरे मित्र हैं। उनके प्रति भी मेर मन में क्षमाभाव है। सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है। किसी के साथ मेरा वैर या विरोध नहीं हैं।
वैरानुबन्ध बड़ा ही विषम है । उससे अनेक प्रकार के अनर्थों की सैकड़ों शाखाएँ फूटती हैं। ईर्ष्या-द्वेष आदि की उत्पत्ति होती है। बार-बार काटने पर भी उसकी जड़ फिर हरीभरी हो जाती हैं। बीजांकुर के समान उसकी परम्परा चलती रहती है । अतएव उसे जड़ से उखाड़ने के लिए तीव्र प्रज्ञा एवं विवेक रूपी खड्ग--धारा का उपयोग करना चाहिए। मत्री भावना से ही विरोध का समूल नाश हो सकता है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧