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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०४ सू. १० पञ्चमहावतसेवनफलनिरूपणम् ४५७ प्राणातिपातादिभ्यः, प्राणातिपातः आदिशब्देन मृषावादा-ऽदत्तादानाऽब्रह्मचर्य-परिप्रहाणां ग्रहणं भवति, तेभ्यः सर्वतो विरमणं महाव्रतानि उच्यन्ते तानि पञ्च । तत्र-प्राणातिपातः प्राणिबधः, मृषावादो-ऽसत्यभाषणम् , अदत्तादानम्-स्तेयम् , अब्रह्मचर्य-मैथुनम् , परिग्रहो मूर्छा एतेभ्यः सर्वतः-सर्वप्रकारेण, त्रिकरण-त्रियोगै विरमणं विरति निवृत्ति रितिभावः ॥१०॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-द्विचत्वारिंशद्विधपुण्यप्रकृतिबन्धेन सद्गतिः सद्धर्मप्राप्तिश्च भवति, प्रस्तावात् मोक्षहेतुभूतानि पञ्चमहाव्रतान्याह---"पाणाइवाय-मुसावाय अदिन्नादाण अबंभचेरअप रिग्गहे हिंतो सव्वओ वेरमणं पंचमहव्वया-" इति । प्राणातिपातः मृषावादा-ऽदत्तादाना-ब्रह्मचर्य-परिग्रहे भ्यः सर्वतः सर्वाशेन गृह्यन्ते तेभ्यः द्रव्यक्षेत्रकालभावा त्रिकरणैस्त्रियोगैः सर्वथा विरतिनिवृत्तिः पञ्चमहाव्रतान्युच्यन्ते ।। तत्र-प्राणातिपातः कषायादिप्रमादपरिणामपरिणतेना-ऽऽत्मना क; मनोवाक्कायादिरुपयोगब्यापारात् करणकारणानुमोदनरूपकायव्यापारेण द्रव्यभावभेदेन द्विविधेन प्राणिप्राणव्यपरोपणरूपः । मृषावादस्तावद् असत्यभाषणम्-अनृतवचनम्-अलीकाभिभाषणम्-२ अदत्तादानञ्च-अदत्तस्य स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकमवितीर्णस्या-ऽऽदान मुच्यते-३ अब्रह्मचर्यम्-स्त्रीसंयोगः, मैथुनमिति यावत्-४ परिग्रहस्तु---मूर्छा, सचित्ताचित्तमिश्रेष तत्त्वार्थदीपिका--प्राणातिपात के साथ जुडे हुए आदि शब्द से मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का ग्रहण होता है । तात्पर्य यह है कि प्राणातिपात आदि पाँच पापों से तीन करण और तीन योग से निवृत्त हो जाना पाँच महाव्रत हैं । प्राणातिपात अर्थात् जीवों की हिंसा, मृषावाद अर्थात् असत्यभाषण, अदत्तादान अर्थात् स्तेय (चोरी), अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन और परिग्रह अर्थात् मूर्छा-- ममता, इन सब से पूर्णरूप से विरत होना महाव्रत हैं ॥१०॥ तत्त्वार्थनियुक्ति----बयालीस प्रकार की पुण्य प्रकृति के बन्ध से सद्गति की प्राप्ति होती है, तथा सद्धर्म होता है। इस प्रसंग से यहाँ पाँच महाव्रतों का कथन करते हैं-- प्राणातिपात और 'आदि शब्द से मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह से, पूर्ण रूप में अर्थात् सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से, तीन करणों और तीनों योगों से निवृत्त होना पाँच महावत हैं । कषाय और प्रमाद रूप परिणत आत्मा के द्वारा, मन वचन और काय रूप योग के व्यापार से तथा करने, कराने और अनुमोदन रूप तीन करणों के द्वारा द्रव्य और भाव प्राणों का व्यपरोपण करना प्राणातिपात कहलाता है । असत्य भाषण करना, असत्य वचन कहना या झूठ बोलना सावध वचन बोलना मृषावाद कहलाता है । स्वामी के दिये विना किसी वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है । स्त्रीसंयोग या मैथुन को अब्रह्मचर्य कहते है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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