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तत्त्वार्थसूत्रे तत्रा-ऽऽत्मनः स्वस्य जाति कुल-रूप-बल-श्रुता-ऽऽझै-श्वर्यप्रभृतीनां गर्हणम् आत्मनिन्दा, परस्याऽन्यस्य-जातिकुलरूपबलश्रुता-ऽऽज्ञै-श्वर्यादीनां प्रशंसनम् परप्रशंसा, आदिपदेन-आत्मनः स्वस्य सद्गुणानामाच्छादनम् असद्गुणानाञ्चोद्भावनम् , परस्य सद्गुणानामुत्कीर्तनम् असद्गुणानाञ्चाऽनुकीर्तनम् नम्र-वृत्तित्वम् गर्वराहित्यम् । निरभिमानत्वम् निरहङ्कारत्वम ।
इत्येतैः षभिःकारणैरुत्कृष्टेक्ष्वाकु-हरिवंश-भोजराजाधुच्चैर्गोत्रकर्मबन्धो भवति । तथाचोकम्-व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवती सूत्रे ८-शतके ९-उद्देशके- "जाइअमदेणं,-कुलअमदेणं,बलअमदेणं,-रूबअमदेणं-तवअमदेणं,--सुय श्रमदेणं,--लाभअमदेणं,--इस्सरियअमदेणं,-- उच्चागोयकम्मासरीर जाव पओगबंधे-” इति ।
जात्यमदेन कुलाऽमदेन बलाऽमदेन रूपाऽमदेन तपोऽमदेन श्रुताऽमदेन लाभाऽमदेन ऐश्वर्याऽमदेन उच्चैर्गोत्रकर्मशरीरयावत्प्रयोगबन्धः इति ॥ ९ ॥
मूलसूत्रम्-पाणाइवायाइहिंतो मुसावायअदिन्नादाण अबंभचेरपरिग्गहेहितो सव्वओ वेरमणं पंचमहच्चया-"॥१०॥
छाया-प्राणातिपाता-दिभ्यः-मृषावादा-ऽदत्तादाना-ऽब्रह्मचर्यपरिग्रहेभ्यः सर्वतोविरमण पञ्चमहाब्रतानि ॥ १० ॥
तत्त्वार्थदीपिका-द्विचत्वारिंशत्पुण्यप्रकृतिस्वरूपमुक्तम् , पुण्यप्रकृतिबन्धेन च सद्गतिःसद्धर्मप्राप्तिश्च भवति, तदेवं प्रस्तावात् मोक्ष हेतुभूतानि पञ्चमहाव्रतान्याह-"पाणाइवाय-मुसावाय" इत्यादि ।
आत्मनिन्दा और परप्रशंसा आदि कारणों से उच्चगोत्र कर्म का बंध होता है।
जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य आदि का अभिमान न करते हुए अपने दोषों की निन्दा करना आत्मनिन्दा है और दूसरे के सद्गुणों की प्रशंसा करना परप्रशंसा है। सूत्र में ग्रहण किये आदि शब्द से यह समझना चाहिए-अपने सद्गुणों को आच्छादित करना और दोषों को प्रकाशित करना, नम्रता धारण करना और निरभिमान होना; इन छह कारणों से उच्चगोत्रकर्म का बंध होता है । उच्चगोत्र कर्म के उदय से इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, भोजराजवंश आदि जैसे उच्चगोत्रों में जन्म प्राप्त होता है । व्याख्याप्रज्ञप्ति अर्थात् भगवतीसूत्र के शतक ८, उद्देशक ९ । में कहा है
__ जाति का मद-न करने से कुल का मद न करने से, बल का मद न करने से, रूप का मद न करने से, तप का मद न करने से, श्रुत का मद न करने से लाभ का मद न करने से और ऐश्वर्य का मद न करने से उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है ॥९॥
सूत्रार्थ—'पाणाइवायाइहिंतो' सूत्र-॥१०॥ प्राणातिपात आदि से पूर्णरूप में निवृत्त होना पाँच महाव्रत हैं ॥१०॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧