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________________ तत्त्वार्थसूत्रे शास्त्राऽनुमतिरहितेषु द्रव्यादिषु ममत्वरूपः, एतेभ्यः प्राणातिपातादिभ्यः सर्वतः सर्वात्मना, त्रिकरणे स्त्रियोगैमनोवाकायैर्विरमणं निवृत्तिः पञ्चमहाव्रतान्यवसेयानि । प्राणिवधादितो निवृत्तिव्रतमुच्यते हिंसादिलक्षणं क्रियाकलापं नानुतिष्ठति, अपितु अहिंसादिलक्षणमेव क्रियाकलापमनुतिष्ठतीति फलति । प्राणातिपातादिभ्यो निवृत्तस्य शास्त्रविहितक्रियानुष्ठानात् सदसत्प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियासाध्यं कर्मक्षपणं भवति, कर्मक्षपणाच्च मोक्षावाप्तिरिति भावः । अत्रेदं बोध्यम्-प्राणातिपातस्तावत् प्राणवियोजनम् , प्राणाश्चेन्द्रियादयः तत्सम्बन्धात्प्राणिनो जीवाः पृथिवीकायायेकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिया स्तान् जीवान् विज्ञाय श्रद्धया प्रतिपद्य भावत स्तस्याऽकरणं ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं चारित्रमुच्यते । तच्च-सदसत्प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियालक्षणं चारित्रं मनोवाक्कायकृतकारिताऽनुमोदितभेदेनाऽनेकविधं बोध्यम् । उक्तञ्च स्थानाङ्गे ५-स्थाने १-उद्देशके-"पंचमहव्वया पण्णत्ता, तंजहा- सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, जाव सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं-" इति । पञ्चमहाव्रतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथासर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणम् , यावत्-सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणम् इति, एवं आवश्यके दशवैकालिकेऽप्युक्तम् ॥ १० ॥ सचित्त अचित्त और मिश्र द्रव्यों में मूरिखना उसका नाम परिग्रह है, ममत्व धारण करना परिग्रह है । इन पाचों पापों से पूर्णरूप से अर्थात् तोन करण और तीन योग से निवृत्ति होना पाँच महाव्रत है । प्राणिहिंसा आदि से निवृत्ति व्रत है इसका अभिप्राय यह है कि अमुक पुरुष हिंसा आदि क्रियाओं का आचरण नहीं करता है किन्तु अहिंसादि क्रियाओं का ही आचरण करता है । जो प्राणातिपात आदि से विरत हो जाता है, वह शास्त्र में प्रतिपादित सत् क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है, और असत् क्रियाओं से निवृत्त होता है इस कारण उसके कर्मो का क्षय होता है, और कर्मक्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि प्राणातिपात का अर्थ है प्राणियों को प्राणों से वियुक्त करना । प्राण इन्द्रिय आदि को कहते हैं । प्राण जिसमें पाये जाए वह प्राणी अर्थात् जीव कहलाता है। प्राणी कई प्रकार के होते हैं ।-पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, इन जीवों के स्वरूप को समझकर और उस पर श्रद्धा करके उनके प्राणों का वियोग न करना ज्ञान श्रद्धानपूर्वक चारित्र कहलाता है । सत् में प्रवृत्ति करना और असत् से निवृत्ति करना चारित्र का लक्षण है । मन वचन काय कृत कारित और अनुमोदन के भेद से वह अनेक प्रकार का है । स्थानांगसूत्र के ५ वें स्थान के प्रथम उद्देशक में कहा है-'महाव्रत पाँच कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं-समस्त प्राणातिपात से विरत होना यावत् समस्त परिग्रह से विरत होना । आवश्यक और दशबैकालिकसूत्र में भी महाव्रत पाँच ही कहे गये हैं ॥१०॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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