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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३. सू०२ बन्धस्य चतुर्विधत्वनिरूपणम् ३४९ __ प्रदेशबन्धः-जीवप्रदेशेषु-कर्मप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रति प्रकृतिप्रतिनियतपरिमाणानां सम्बन्धरूपो बन्धभेदः । कर्मपुद्गलानां पदग्रहणं स्थितिरसनिरपेक्षदलिकसंख्याप्रधानत्वेनैव करोति यः स प्रदेशबन्ध उच्यते ॥४॥ तथाचोक्तम् "प्रकृतिः परिणामः स्यात् स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः-प्रदेशः प्रचयात्मकः ॥१॥ इति । तत्र-योगहेतुको प्रकृतिप्रदेशबन्धौ भवतः, कषायहेतुकौ च स्थित्यनुभागौ स्तः, तत्प्रकर्षाप्रकर्षभेदात् तदबन्धविचित्रभावः सम्भवति । उक्तञ्च-"जोगा पयडिपएसा ठिइअणुभागा कसायओ कुणइ । अपरिदुच्छिण्णे सुयबंधट्ठिदिकारणं गत्थि ॥१॥ इति । "योगात्प्रकृतिप्रदेशौ-स्थित्यनुभागौ कषायतः करोति । अपरिणतोच्छिन्नयोगश्च बन्धस्थितिकारणं नास्ति ॥१ इति ॥ अपरिणतस्य-उपशान्तकषायस्य, उच्छिन्नस्य-क्षीणकषायादिकस्य च स्थितिबन्धहेतुर्न भवति इति ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः--अथ पूर्वसूत्रोक्तलक्षणः खलु कर्मभावबन्धः किमेकविधः-? उताहो-अनेकविधः-? इत्याशङ्कायामाह "सो चउव्विहो" इत्यादि । स खलु पूर्वसूत्रोक्तः कर्मभावबन्धश्चतुर्विधः मन्द विपाक-रस, उसका बन्ध अनुभागबन्ध कहलाता है । ४-प्रदेश बन्ध-जीवप्रदेशों में, कर्मप्रदेशों में अनन्त कर्म प्रदेशों का प्रत्येक प्रकृति में नियत परिमाण के रूप में सम्बंध होना प्रदेशबन्ध है । कर्मदलिकों का संचय प्रदेशबन्ध कहलाता है अतः स्थिति और रस की अपेक्षा न रखते हुए दलिकों की संख्या की प्रधानता से ही जो बध हो उसे प्रदेशबन्ध समझना चाहिए। कहा भी है-- 'परिणाम को प्रकृति कहते हैं, काल की अवधि को स्थिति कहते हैं, रस को अनुभाग और दलिकों का प्रचय-समूह को प्रदेश कहते हैं।' इन चार प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं । योग और कषाय की तीव्रता और मन्दता के भेद से बन्ध में विविधता हो जाती है । कहा भि है-'योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभागबन्ध जीव करता है । जिस जीव का योग और कषाय अपरिणत होता हैं अथवा नष्ट हो जाता है, उसको विशेष स्थितिबन्ध का कारण नहीं रहता। उपशान्त कषाय वीतराग अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान के जीव अपरिणत योग कषाय वाले कहलाते हैं और क्षीण कषाय आदि जीव उच्छिन्न या विनष्ट योग-कवाय वाले कहलाते हैं । ऐसे जीवों को जो कर्मबन्ध होता है, उसमें दो समय से अधिक स्थिति नहीं पड़ती है।॥२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पिछले सूत्रो में प्रतिपादित बन्ध क्या एक प्रकार का है या अनेक प्रकार का ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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