SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ तत्त्वार्थसूत्रे रागेण य दोसेण य-"। "रागे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-माया य लोभे य" । "दोसे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-कोहे य माणे य-"इति । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पापकर्माणि बध्यन्ते, तद्यथा-रागेण च,द्वेषेण च, । रागो द्विविधः प्रज्ञप्त:तद्यथा माया च-लोभश्च । द्वेषो द्विविधः प्रज्ञप्तः--तद्यथा-क्रोधश्च मानश्चेति । एवं प्रज्ञापनायां त्रयोविंशति पदेऽपि ॥१॥ मूलसूत्रम् - "सो चउन्विहो, पगइ-ठिइ-अणुभाग-पएसभेयओ-"॥२॥ छाया-“स चतुर्विधः-प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदतः-" || तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रोक्तो बन्धः किमेकप्रकार एव, आहोस्विदनेकप्रकारः-३ इत्याकाझायामाह-"सो चउन्विहो" इत्यादि । तथाच–प्रकृतिबन्धः-४ स्थितिबन्धः-? अनुभागबन्धः-३ प्रदेशबन्धश्च-४ इत्येवं चतुर्विधो बन्ध इति फलितम् ।। ___ तत्र–प्रकृतिबन्धः कर्मणः प्रकृतयोंऽशाः भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टी, तासां बन्धः-प्रकृतिबन्धः,प्रकृतेर्वाऽविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिबन्धः । ! स्थितिबन्धः-अध्यवसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य स्थितिकालनियमनम् अष्टानां ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनां जघन्यभेदभिन्नावस्थानस्य निवर्तनं वा स्थितिबन्ध उच्यते ॥२॥ अनुभागबन्धः-अनुभागो विपाकस्तीवादिभेदो रसस्तस्य बन्धोऽनुभागबन्धः ॥३॥ माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का कहा गया है-क्रोध और मान ।, प्रज्ञापनासूत्र के तेवीसवें पद में भी इसी प्रकार का प्ररूपण किया गया है ॥१॥ तत्त्वार्थदीपिका-"सो चउव्विहो, पगइ-ठिइ' इत्यादि । सूत्र-२ सूत्रार्थ-बन्ध चार प्रकार का है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशवन्ध ।।२।। पूर्व सूत्र में कथित बन्ध क्या एक ही प्रकार का है अथवा अनेक प्रकार का है ? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर कहते हैं-बन्ध के चार भेद हैं (१) प्रकृतिबन्ध (२) स्थितिबन्ध (३) अनुभागबन्ध और (४) प्रदेशबन्ध । १-प्रकृतिबन्ध-प्रकृति का अर्थ है-अंश या भेद उसके ज्ञानावरण आदि आठ भेद हैं । उनका बन्ध होना प्रकृतिबन्ध कहलाता है । अथवा अविशिष्ट-साधारण जो कर्मद्रव्य हैं उनमें नाना प्रकार की प्रकृतियाँ अर्थात् ज्ञानादि गुणों को आवृत करने के विभिन्न स्वभावों का उत्पन्न हो जाना प्रकृतिबन्ध है। २-स्थितिबन्ध-परिणामविशेष के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म के दलिकों की आत्मा के साथ बँधे रहने को कालमर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। अथवा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मप्रकृतियों के जघन्य आदि भेद से भिन्न अवस्थान का निर्वर्तन स्थिति बन्ध कहलाता है। ३-अनुभागबन्ध -अनुभाग अर्थात् गृहीत कर्मदलिकों में उत्पन्न होने वाला तीव्र या શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy