SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___ तत्त्वार्थसूत्रे प्रज्ञप्तः, प्रकृति-स्थित्य-नुभाग-प्रदेशभेदात् । तत्र-प्रकृतिः खलु मूलं कारणम् , यथा-घटकपालदीनां मृद्रव्यं भवति । प्रक्रियन्ते यस्याः सकाशात् सा प्रकृतिः-स्वभाव इत्यादिः उक्तञ्च-'शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिजेलस्य-" इति, यथा वा-"दुष्टप्रकृतिरयं-" दुष्टस्वभावः इति लोके प्रसिद्धम् । ज्ञानावरणकर्मणो ज्ञानाच्छादनं प्रकृतिः स्वभावों वर्तते । तथाच ज्ञानावरणकर्मणा-अर्थानवगमो भवति एवं दर्शनावरणकर्मणा-अर्थानालोचनं भवति, एवं-वेदनीयकर्मादावपि विज्ञेयम्, स्वभाववचनः प्रकृतिशब्दो भावसाधनो बोध्यः । प्रकृतिरूपो बन्धः प्रकृतिबन्धः, ज्ञानावरणादिकर्मात्मनोरैक्यलक्षणः पुद्गलादानरूपः तत्स्वभावादप्रच्युतःस्थिति रुच्यते, स्थितिशब्दोऽपि भावसाधनः । उपात्तस्याऽवस्थानकालपरिच्छेदात् स्थितिबन्धो भवति, यथा-गवादीक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्यवः स्थितिः, तथा-ज्ञानावरणादीनामर्थानवगमादिस्वभावादप्रच्यवः स्थितिः क; खलु-आत्मना परिगृहीतस्य कर्म पुद्गलराशेरात्मप्रदेशेष्ववस्थान स्थिति रितिपर्यवसितम्, तया नद्रूपो वा बन्धःस्थितिबन्धः अनुभागो-ऽनुभावः कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेष उच्यते । तथाच कालान्तरावस्थानेसति विपाकावस्था अनुभावबन्ध उच्यते, प्राप्तपरिपाकावस्थस्य बदरादेरिवोपभोग्यत्वात् । स्थितौ पूर्वोक्त कर्मबन्ध चार प्रकार का कहा गया है-(१) प्रकृतिबन्ध (२) स्थितिबन्ध (३) अनुभागबन्ध और (४) प्रदेशबन्ध । प्रकृति का अर्थ है-मूलकारण, यहाँ उसका आशय स्वभाव है। जैसे-शीतलता जो है सो जल का स्वभाव है, अथवा यह पुरुष दुष्ट प्रकृति है, इसका अर्थ है 'यह पुरुष दुष्ट स्वभाव वाला है । यह उक्ति लोक में प्रसिद्ध है। ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति या स्वभाव ज्ञान को अच्छादित करना हैं। इस कारण ज्ञानावरण कर्म के उदय से पदार्थों के ज्ञान का अभाव होता है। दर्शनावरण कर्म के उदय से पदार्थों के आलोचन (सामान्यज्ञान) का अभाव होता है । इसी प्रकार वेदनीय आदि कर्मों की भी विभिन्न प्रकृतियाँ समझ लेना चाहिए। स्वभाव का वाचक प्रकृति शब्द भावसाधन हैं। प्रकृति रूप बन्ध को प्रकृतिबन्ध कहते है। ज्ञानावरण आदि कर्मों का आत्मप्रदेशों के साथ एक भेद होना जो बन्ध है, उसका अपने स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है तात्पर्य यह है कि आत्मप्रदेशों के साथ कमें पुद्गलों के बद्ध रहने के काल की जो अवधि है; वह स्थितिबन्ध है । स्थिति शब्द भी भावसाधन है अर्थात् ठहरने को स्थिति कहते हैं । गृहीत वस्तु के ठहरने के काल की मर्यादा स्थिति कहलाती है । जैसे गाय आदि के दूध की मधुरता-स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के ज्ञानाच्छादन आदि स्वभाव का च्युत न होना स्थिति है । निष्कर्ष यह है कि आत्मा के द्वारा ग्रहण की हुई कर्म-पुद्गलों की राशि का आत्मप्रदेशों में अवस्थित रहना स्थिति है । उसके द्वारा या उस रूप में होने वाला बन्ध स्थितिबन्ध है। अनुभाग अर्थात् अनुभाव । कर्म पुद्गलों में रहा हुआ एक विशेष प्रकार का सामर्थ्य अनुभाग है । तात्पर्य यह है कि ग्रहण किये जाते हुए कर्मपुद्गलों में तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy