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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. २ सू. ३१ परिणामस्वरूपनिरूपणम् ३३७ णामः आत्मनः काय-वाङ्मनोरूपेण शक्तिविशेषस्योत्पादः । उपयोगश्च चैतन्यस्वभावस्यात्मनो ज्ञान-दर्शनाभ्यां प्रणिधानादिलक्षणः । स्वविषयोपलम्भादिव्यापारः समाधिविशेषो वा तवारकोऽर्थपरिच्छेदोऽप्युपयोगस्तेनाकारेणात्मनः परिणामो भवति । तत्र-योगः पञ्चदशविधः-साकाराऽनाकारलक्षणः । उपयोगो जीवस्वभवो द्वादशविधः-- मतिश्रुत्राऽवधिमनःपर्यवकेवलज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदात् । योगःपञ्चदशविधः-औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकमिश्रतैजसकार्मणकाययोगसत्यमृषाऽसत्यामृषावाग्योगमनोयोगभेदात् । आत्मा कायादि पुद्गलशतसम्बन्धात् तां तां गमनादिकथनचिन्तनक्रियांप्रतिपद्यते, क्षीरोदकवत्-ताद्रूप्येण, मृद्धटवत्तादात्म्येन परिणमते इति भावः । वचन और मन रूप से आत्मा की शक्तिविशेष की उत्पत्ति है । चैतन्यस्वरूप आत्मा का ज्ञानदर्शन के द्वारा प्रणिधान आदि रूप अपने विषय को ग्रहण करने का जो व्यापार है, वह उपयोग कहलाता है । समाधि को भी उपयोग कहते हैं । उसके द्वारा होने वाला पदार्थ का परिच्छेद भी उपयोग कहलाता है । इस उपयोग के रूप में आत्मा का परिणाम होता है । उपयोग बारह प्रकार का है । जीव का स्वभाव जो उपयोग है वह मूल में दो प्रकार का है--साकार और अनाकार । दोनों के मिलाकर बारह भेद होते हैं-(१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान (६) मति-अज्ञान अर्थात् कुमतिज्ञान (७) श्रुताज्ञान अर्थात् कुश्रुतज्ञान (८) विभंगज्ञान अर्थात् कुअवधिज्ञान (९) चक्षुदर्शन (१०) अचक्षुदर्शन (११) अवधिदर्शन (१२) केवलदर्शन । योग के पन्द्रह भेद ये हैं--(१) औदारिककाययोग (२) वैक्रियकाययोग (३) आहारककाययोग (४) औदारिकमिश्रकाययोग (५) वैक्रियमिश्रकाययोग (६) आहारकमिश्रकाययोग और (७) कार्मणकाययोग (८) सत्यवचनयोग (९) असत्यवचनयोग (१०) मिश्रवचनयोग (११) व्यवहार-असत्यामृषावचन योग (१२) सत्यमनोयोग (१३) असत्यमनोयोग (१४) मिश्रमनोयोग और (१५) असत्यामृषा मनोयोग ।। आत्मा काय आदि सैकड़ों प्रकार के पुद्गलों के साथ संबंध होने के कारण नाना प्रकार की गमन, कथन एवं चिन्तन आदि क्रियाएँ किया करता है। उस समय उसकी उसी रूप में परिणति हो जाती है । वह दूध और पानी की भाँति अथवा मृत्तिका और घट की भाँति एकमेक-सा हो जाता है । तद्रूप में परिणत होता है। ४३ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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