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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० २ सू. २७
संघात निष्पत्तिनिरूपणम् ३०७
तत्त्वार्थनिर्युक्तिः -- पूर्वं तावत् सर्वं वस्तु - उत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावम् अर्थाभिधानप्रत्यय रूपं प्रतिपादितम्, तत्र - यद् उत्पद्यते -येति च तत्कथं सत्-धौव्यरूपं नित्यञ्च भवेत् ? सन्नित्यत्वाभ्यां निराकृतत्वेन न किञ्चिदसदनित्यं वा स्यात् । तथासति - लोकव्यवहार उच्छिन्नः स्यात् - एतस्य दुरूपपादत्वाद दुःश्रद्धेयत्वाच्च साङ्गत्यम् ।
नित्यत्वं खलु –उत्पादव्ययाभ्यां विरुद्धम् । उत्पादव्ययौ च नित्यत्वेन विरुद्धौ स्तः । तथाच - पयः पावकयोरिव, छायातपयोरिव परस्पराऽत्यन्तविरुद्धयोरुत्पादव्यय-धौव्ययोः सहावस्था - नासंभवेन सतो वस्तुनः उत्पादव्ययधौव्यलक्षणं न - विद्वज्जनमनोरञ्जक मित्याशङ्कां समाधातुं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयानुसारेणाऽन्यतरप्रधानोपसर्जनभावविवक्षया - एकस्मिन्नपि वस्तुनि सर्वत्रैव सन्नित्यत्वस्य, असदनित्यत्वस्य च सभ्भवेनोक्तविरोधं परिहरति – “अप्पिय - णप्पिएहिं अणेगंतं - " इति ।
अर्पिताऽनर्पिताभ्याम् प्राधान्येन विवक्षिताऽविवक्षिताभ्याम् प्राधान्याऽप्राधान्यविवक्षयोपातानुपात्ताभ्याम् एकमपि वस्तु सद् द्रव्यं नयापेक्षयाऽनेकान्तम् कथञ्चिन्नित्यम् कथञ्चिदनित्यं सम्भवति—। तथाहि—घटादिवस्तुषु द्रव्यार्थिकनयस्य प्रधानतया विवक्षानुसारेण मृत्तिकादिद्रव्यान्व
तत्त्वार्थनियुक्ति — पहले बतलाया जा चुका है कि समस्त वस्तुएँ उत्पाद व्यय और धौव्य स्वभाव वाली है । इस संबंध में प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जो वस्तु उत्पाद और विनाश वाली है वह ध्रौव्य स्वभाव वाली अर्थात् नित्य कैसे हो सकती है ? अगर वस्तु सत् है तो असत् नहीं हो सकती और यदि नित्य है तो अनित्य नही हो सकती । अतएव वस्तु का पूर्वोक्त स्वरूप सिद्ध नहीं किया जा सकता और इस कारण वह संगतनहीं है ।
उत्पाद और व्यय का नित्यता के साथ विरोध है । और नित्यताका उत्पाद और व्यय के साथ विरोध है । जैसे जल और अग्नि या छाया और धूप परस्पर में अत्यन्त विरुद्ध हैं, उसी प्रकार धौव्य के साथ उत्पाद-व्यय का विरोध है । वे एक स्थान में रह नहीं सकते । ऐसी स्थिति में वस्तु का लक्षण उत्पाद व्यय और ध्रौव्य कहना विद्वज्जनों के लिए मनोरंजक नहीं हो सकता । इस आशंका का समाधान करने के लिए द्रव्यार्थीक एवं पर्यायार्थिक नय के अनुसार किसी धर्म को प्रधान और किसी को अप्रधान विवक्षित करके एक ही वस्तु में सत्ता, असत्ता, नित्यता और अनित्यता का सद्भाव दिखलाते हुए उक्त विरोधका परिहार करते हैं
प्रधान और अप्रधान रूप से विवक्षा करने से अर्थात् किसी धर्म को प्रधान रूप में और किस को गौण रूप में विवक्षित करने से एक ही वस्तु अनेकान्तात्मक कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य हो जाती हैं । वह इसप्रकार - घटादि वस्तुओं में द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧