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तत्त्वार्थसूत्रे इत्येवं रीत्या एकस्यैव पुरुषस्य जनकत्वजन्यत्वादि नानासम्बन्धसद्भावाद् अनेकविधो व्यवहारः परस्परं विरुद्धवद्भासमानोऽपि न विरुद्धो भवति- । एवम् एकमपि घटपटादिवस्तुद्रव्यं सामान्यमृदादेरन्वयार्पणया-प्राधान्येन विवक्षया नित्यमुच्यते, घटादिपर्यायार्पणया-विशेषविवक्षया पर्यायार्थिकनयेन नित्यमपि द्रव्यं वस्तु अनित्यमुच्यते. । आत्मनो नित्यत्वेऽपि पर्यायनयेनाऽनित्याकारसन्दर्शनात् मृत इत्यादिवत् , तौ च समान्यविशेषौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयेन व्याख्यानं कृत्वा केनचिन्नयप्रकारेण कथञ्चिद्भेदाभेदाभ्यां व्यवहारहेतू भवतः । ऊक्तञ्च द्रव्यार्थिकनयेन
"परिणामोऽह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥
पर्यायार्थिकनयेनसत्पर्यायेण नाशः प्रादुर्भावोऽसता च पर्ययतः।
द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥२॥ इति. एवमर्पिताऽ नर्पितसिद्धिवशाद् एकस्मिन्नेव पदार्थे नित्यत्वाऽनित्यत्वे, इत्यादयो बहवः परस्परं विरुद्धत्वेन प्रतीयमाना धर्मा भासन्ते, अपेणाभेदात्- ॥२७॥ से भागिनेय और मातामह की अपेक्षा से दोहित्र कहा जाता है। इस प्रकार एक ही पुरुष में जनक एवं जन्य आदि का यह व्यवहार परस्पर विरुद्ध-सा लगता है, फिर भी वास्तव में वह विरुद्ध नहीं है ।
इसी प्रकार एक ही घट या पट आदि वस्तु मृत्तिका आदि सामान्य की विवक्षा करने पर नित्य कहलाती है; मगर घट आदि पर्यायों की विवक्षा करने पर पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य भी कही जाती है । आत्मा नित्य होने पर भी पर्यायनय से अनित्य प्रतीत होती है। इसी कारण उसमें 'मृत' जैसा व्यवहार होता है ।
वह सामान्य और विशेष, जो क्रमशः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के विषय हैं, कथंचित् अभेद और भेद द्वारा व्यवहार के हेतु होते हैं। कहा भी है-- ____ परिणमन का अर्थ है अर्थान्तर होना अर्थात् एक पर्याय का विनाश होकर दूसरे पर्याय का उत्पन्न होना । परिणमन के स्वरूप के ज्ञाता विद्वान् वस्तु का सर्वथा ज्यों का त्यों बना रहना अथवा सर्वथा विनष्ट हो जाना परिणाम नही मानते ।
__ इस प्रकार अर्पित और अनर्पित की सिद्धि होने से एक ही पदार्थ में नित्यता आदि बहुत-से धर्म, जो परस्पर विरुद्ध-से प्रतीत होते हैं, मगर वास्तव में विवक्षाभेद के कारण विरुद्ध नहीं है, प्रतिभासित होते हैं ॥२७॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧