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तत्त्वार्थसूत्रे यदर्शनात् ध्रौव्यलक्षणे स्थित्यंशेऽर्पिते-उपात्ते सति साक्षात्-तद्विपरीतयोरुत्पादव्यययोरनर्पितयोरनुपात्तयोरपि ग्रहणं भवत्येव । ___ ध्रौव्यं तावत्-पूर्वमुत्तरं च पर्यायमुत्पादव्ययलक्षणमासादयति, न पुन रुत्पादलक्षणो-व्ययलक्षणो वा पर्यायः पूर्वोत्तरपर्यायानुभावी भवति । तस्माद् विलक्षणौ विभिन्नौ उत्पाद-व्ययौ सुज्ञातौ भवतः । त्रिविधमपि-उत्पादव्ययस्थितिलक्षणं सद् वस्तु अर्पणाऽनर्पणाभ्यां नित्यमनित्यञ्च सिद्धम् । अनेकधर्मवत्त्वेन व्यवस्थितं वर्तते ।
तत्र-प्रयोजनवशात्कदाचित्कश्चिद्धर्मो वचनेनार्पितो विवक्षितो भवति, कश्चित्पुनः सन्नपि प्रयोजनाभावात्-अनर्पितोऽविवक्षितो भवति । किन्तु-न हि एतावता स धर्मी विवक्षितधर्म मात्र एव भवति, अपितु-अविवक्षितधर्मयुक्तोऽपि भवत्येव । तस्मात् सत्पर्यायविवक्षायां सद् उत्पादादिस्थित्यंशविविक्षायां नित्यमसदपि उत्पादादि अनित्यञ्च भवति । सत्त्वाऽसत्त्वविशिष्टग्रहणात् सर्वदा वस्तुनो येन प्रमाणेन यद् वस्तु सद्विशिष्टं गृह्यते । अन्यथा-अविवक्तग्रहणमेवापद्येत, चाक्षुषादिबुद्धयो विविक्ता एव प्रतीयन्ते । उक्तञ्च-स्थानाङ्गे १० स्थाने-“अप्पियणप्पिए-” इति । अर्पिता-ऽनर्पिते-इति॥२७॥
मलसूत्रम्-'वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण खंधाणं बंधो-" ॥२८॥
छाया-"विमात्र-स्निग्ध-रूक्षत्वेन स्कन्धानां बन्धः-" ॥२८॥ विवक्षा करके, मृत्तिका द्रव्य का अन्वय देखने से ध्रौव्य रूप स्थिति-अंश को अर्पित-ग्रहण करने पर उससे साक्षात् विरुद्ध अनर्पित उत्पाद और व्यय का भी ग्रहण हो जाता है ।
ध्रौव्य द्रव्य उत्पाद रूप व्यय रूप पूर्वोत्तर पर्याय को धारण करता है, उत्पाद पर्याय या व्ययपर्याय पूर्वोत्तर पर्यायों में अनुगमन नहीं करता । इस कारण उत्पाद और व्यय विभिन्न और विलक्षण हैं, यह सहज ही ज्ञात हो जाता है । इस प्रकार अर्पण औ अनर्पण के द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप वस्तु नित्य और अनित्य सिद्ध होती है ।
प्रयोजन के अनुसार कदाचित् कोई धर्म वचन से अर्पितविवक्षित किया जाता है और दूसरा धर्म विद्यमान होते हुए भी प्रयोजन न होने से अनर्पित-अविवक्षित होता है। मगर इतने मात्र से ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए उस वस्तु में विवक्षित धर्भ ही है । उसमें अविवक्षित धर्म भी रहता ही है । इसकारण जब नित्यता को प्रधानता दी जाती है । तब भी वस्तु में पर्याय की अपेक्षा से अनित्यता रहती है और प्रयोजनवशात् जब पर्याय की मुख्यता से अनित्यता का विधान किया जाता है तब वस्तु में नित्यता भी विद्यमान रहती है । स्थानांग सूत्र में १० वें स्थान में कहा है-'अप्पियणप्पिए' अर्थात् अर्पित और अनर्पित ॥२७॥
मूलसूत्रार्थ--"वेमाय गिद्धलुक्ख" इत्यादि । सूत्र ॥२८॥ विसदृश परिमाण में स्निग्धता और रूक्षता होने से स्कंधों का बन्ध होता है ॥२८॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧