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________________ २९६ तत्त्वार्थसूत्रे एवंविधप्रक्रियाऽभ्युपगमेन च - एकनयमतानुसारि सर्वमेव दूषणजातम् उपस्थाप्यमानमसम्बद्धत्वादपाकृतं भवति । तस्मात् कथञ्चिद् भेदाभेदस्वभावेऽपि वस्तुनि कदाचिदभेदप्रत्ययः स्वसंस्कारावेशात् केवलमनन्वयिनमंशं द्रव्यात्मकमलपन् - संगोपर्यंश्च प्रवर्तते । कदाचित्पुनर्भेदमात्रवादिनो भेदावलम्बना प्रतीतिः प्रादुर्भवति । अनेकान्तवादिनस्तुआकाङ्क्षितविवक्षिताऽर्थाधीनज्ञानाभिधानस्य द्रव्यपर्याययोः प्रधान - गौणभावापेक्षया सकलवस्तुविषयव्यवहारप्रवृत्तिर्वस्तुत्वमनेकाकारमेव वर्तते । उक्तञ्च - - " सर्वमात्रासमूहस्य विश्वस्याऽनेकधर्मणः । सर्वथा सर्वदाभावात् क्वचित्किञ्चिद् विवक्ष्यते ॥ १ ॥ इति । किञ्च – “स्थितिजननविरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन - ! सकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥ १ ॥ इतिचोक्तं सङ्गच्छते । एतेन रूपादिव्यतिरेकेण मृद्द्द्रव्यमित्येकवस्त्वालम्बना चाक्षुषप्रतीतिः प्रत्याख्यातुमशक्येति केषाञ्चिन्मतमपि केवलद्रव्यसाधकमपास्तम् अनेकान्तवादिप्रक्रियाऽनवबोधात् । की है । इस प्रकार की नित्यानित्यता को स्वीकार करने से एकान्तवाद में आने वाले समस्त दोषों का परिहार हो जाता है क्योंकि अनेकान्त वाद के साथ उन दोषोंका कोई संबंध नहीं है । भेदाभेद स्वभाव वाली वस्तु में भी कभी-कभी अभेद की जो प्रतिति होती है, उसका कारण संस्कार का आवेश मात्र है इस प्रकार का आवेश भेद अंश का अपलाप करके अथवा संगोपन करके प्रवृत्त होता है । कभी-कभी उसी वस्तु के विषय में भेदविषयक प्रतीति उत्पन्न होती है । ऐसी प्रतीति भेदवादी की होती है और उसमें अभेद का अपलाप होता है । 1 किन्तु अनेकान्तवादी द्रव्य और पर्याय या अभेद और भेद दोनों को स्वीकार करता है । केवल कभी द्रव्य को प्रधान और पर्याय को गौण विवक्षित करता है और कभी पर्याय को प्रधान रूप में विवक्षित करके द्रव्य को गौणता प्रदान करता है । वह दोनों अशों में से किसी भी एक अंश का निषेध नहीं करता । इस प्रकार अनेकान्तबाद के अनुसार सभी वस्तुएँ अनेकधर्मात्मक हैं । कहा भी है यह विश्व सर्व अंशात्मक हैं अर्थात् संसार के सभी पदार्थ अनेक धर्मों से युक्त हैं, फिर भी कहीं किसी धर्म की विवक्षा की जाती है और भी कहा है- यह जंगम और स्थावर जगत् प्रतिक्षण ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश से युक्त है, अर्थात् जगत् के प्रत्येक पदार्थ में यह तीनों धमें एक साथ रहते हैं । हे जिन ! वक्ताओं में श्रेष्ठ आपके यह वचन आपकी सर्वज्ञता के चिह्न हैं । रूपादि से भिन्न ' मृत्तिकाद्रव्य' इस प्रकार एक वस्तु रूप से जो चाक्षुष प्रतीति होती है, उसका निषेध नहीं किया जा सकता, ऐसा जो किसी का मत है वह खंडित हो जाता શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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