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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ २ सू. २५ सतो लक्षणनिरूपणम् २९७ तथाहि अनेकान्तवादे रूपादिभ्यो नाऽत्यन्तव्यतिरिक्तं किमपि द्रव्यमस्ति कथञ्चिद् भेदाभेदयोरुभयोरभ्युपगमात् । तथाचोक्तम् -- द्रव्यं पर्यायवियुक्तं पर्याया द्रव्य वर्जिताः क्व कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन वा ॥१॥ इति ।। न खलु विशेषनिरपेक्षः सामान्यलक्षणः कश्चिद्धौव्यांशो वर्तते कचिद् यः केवलो गृह्येत, नवा-सामान्यनिरपेक्षो विशेषमात्रग्रहणवादिनः सामान्योपलम्भानुभवविरोधः स्यात् । तस्मात् सामान्यं प्रौव्यलक्षणमवश्यमभ्युपेत्तव्यम् । एवं विशेषोऽपि कश्चिदवश्यं स्वीकर्तव्यः, न हि-वस्तुनः सर्वथा तुल्यतैव भवति- । यदि तस्य सर्वथा तुल्यतैव स्यात् तदा-वैरूप्यरहितत्वात् विवक्षितं वस्त्वन्तरादन्यदित्येषा प्रतीति न स्यात् । ___ केनचिदप्याकारेण भेदाभावात् तस्माद् भेदमभिवाञ्छता प्रेक्षावता वैरूप्यमपि विशेषलक्षणमुत्पादव्ययस्वरूपं केनचिदाकारेणाऽवश्यमङ्गीकर्तव्यम् । तथाच-सामान्यविशेषस्वभावं सर्वमेव वस्तु सर्वदा भवतीति-अभ्युपगन्तब्यम् । किन्तु सामान्यविशेषयोः स्वलक्षणभेदेऽपि नाऽत्यन्तभेदो वर्तते, तस्य खलु वस्तुनः शबलहै क्योंकि वह केवल द्रव्य का ही साधक हैं । उन्होंने अनेकान्तवाद की प्रक्रिया को नही समझा है । अनेकान्त बाद में रूपादि गुणों से सर्वथा भिन्न द्रव्य कुछ भी नहीं है। वहाँ तो भेद और अभेद- दोनों ही स्वीकार किये गये हैं। कहा भी है पर्यायों से रहित द्रव्य और पर्यायों से रहित पर्याय कहाँ, कब, किसने, किस रूपमें, किस प्रमाण से देखे हैं ? अर्थात् कभी देखे ही नहीं जा सकते । जहाँ द्रव्य है वहाँ पर्यायों की सत्ता और जहाँ पर्याय हैं वहाँ द्रव्य की सत्ता अवश्य होती है। विशेषों से रहित, सामान्य रूप ध्रौय अंश अकेला नहीं नहण किया जा सकता और न सामान्य अंश के विना विशेष अंश ही कहीं ग्रहण किया जा सकता है । अतः ध्रौव्य रूप सामान्य अवश्य स्वीकाव करना चाहिए और विशेष अंश को भी अवश्य अंगीकार करना चाहिए। ___ सब वस्तुएँ सर्बथा समान ही नहीं होती । यदि वे समान हों तो उनमें किसी भी प्रकार की असमानता हो ही न सके । ऐसी स्थिति में एक वस्तु दूसरी वस्तु से पृथक् कैसे प्रतीत होगी ? उनमें किसी भी रूप में भेद तो है नहीं, फिर भेद प्रतीति का क्या कारण है ? अतएव जो विद्वान् भेद को स्वीकार करता है, उसे किसी न किसी रूप में विरूपता उत्पात और व्यय भी अवश्य अंगीकार करना चाहिए और ऐसा मानना चाहिए कि सब वस्तुएँ सदा सामान्य विशेषात्मक ही हैं । सामान्य और विशेष के लक्षण में भेद होने पर भी दोनों में सर्वथा भेद नहीं है, क्योंकि वे वस्तु से अभिन्न हैं । एक वस्तु को यदि वस्तुत्व की अपेक्षा भी दूसरी वस्तु से શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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