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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. २५ __ सतो लक्षणनिरूपणम् २९५ यमाश्रित्य द्रव्यमेकमभेदप्रतीति हेतुरिति प्रज्ञाप्यते । एवञ्च स्थित्युत्पत्तिविनाशस्वभावं सकलमेववस्तु सद् वर्तते, । एतौ च द्रव्यपर्यायौ न ध्रौव्योत्पादव्ययरूपौ, न परस्परनिरपेक्षौ सन्तौ सतोलक्षणे भवतः । द्रव्यार्थिकस्य ध्रौव्यमात्रवृत्तित्वात् , पर्यायस्योत्पादव्ययमात्रवृत्तित्वात् , परस्परापेक्षौ पुनस्तौ वस्तु स्वत्वं भवतः । नहि-द्रव्यांशः पर्यायांशो वा परमार्थतः कश्चिदस्ति, तयोः परिकल्पितत्वात्. । उक्तञ्च "नाऽन्वयो भेदरूपत्वान्न भेदोऽन्वयरूपतः । मृदभेदद्वयसंसर्गवृत्तिर्जात्यन्तं घटः ॥१॥ इति तस्माद् एकान्तवादिपरिकल्पिताद् वस्तुनोऽनेकान्तवादिनः-सम्मतं वस्तु जात्यन्तरमेवाऽविभक्तरूपद्यसंसर्गात्मकत्वात , नृसिंहादिवत् । उक्तञ्च--- "न नरेःसिंहरूपत्वान्न सिंहो नररूपतः । शब्दविज्ञानकार्याणां भेदाज्जात्यन्तरं हि तत् ॥१॥ इति इत्थञ्च--- घटाद्यपि वस्तु कल्पिताद् द्रव्यार्थिकरूपात् पर्यायार्थिकरूपाच्च जात्यन्तरं वर्तते यह ध्रौव्य रूप द्रव्य और उत्पाद-व्यय रूप पर्याय परस्पर निरपेक्ष होकर सत् का लक्षण नहीं हैं। द्रव्यार्थिक नय ध्रौव्य को विषय करता है और पर्यायार्थिक नय उत्पाद और व्यय को ग्रहण करता है । यह दोनों परस्पर सापेक्ष होकर ही वस्तु के स्वरूप हैं । द्रव्यांश या पर्यायांश कोई वास्तविक नहीं है; ये दोनों अंश तो कल्पित हैं। वस्तु अपने आपमें एक अखण्ड रूप हैं; सिर्फ नित्य अनित्य होने के कारण उसमें दो अंशों का व्यवहार होता हैं। कहा भी है अकेले अन्वय को अर्थात् अभेद (सामान्य) को स्वीकार करना उचित नहीं है, क्योंकि भेद की भी प्रतीति होती है और केवल भेद को स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अभेद की भी प्रतीति होती है। इस प्रकार घट मृत्तिका से भेद और अभेद वाला होने से एक भिन्न ही प्रकार का है। अतएव एकान्तवादियों द्वारा कल्पित वस्तु से अनेकान्तवादियों द्वारा सम्मत वस्तु स्वरूप भिन्न प्रकार का है, क्योंकि उसमें नित्यता और अनित्यता दोनों पाई जाती है । जैसे नर और सिंह से 'नरसिंह' का रूप भिन्न है, उसी प्रकार एकान्त नित्यता और अनित्यता से नित्यानित्यता भिन्न है। कहा भी है 'नरसिंह अकेला नर नहीं है, क्योंकि उसमें सिंह का भी रूप पाया जाता है और वह सिंह भी नहीं है क्योंकि उसमें नर का भी रूप पाया जाता है । इस प्रकार शब्द ज्ञान और कार्य में भिन्नता होने से नृसिंह भिन्न ही जाति है ॥ १ ॥ इस प्रकार घटादि प्रत्येक वस्तु कल्पित द्रव्यरूप और पर्याय रूप से विलक्षण प्रकार શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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