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________________ तत्त्वार्थसूत्रे स्वभावोऽन्यपरिवर्जनेनाऽन्यपरिवर्जनस्याऽपवादरूपत्वात् स हि - पर्यायार्थिकनयः इतरपरिवर्जनेनाऽन्यं प्रतिपादयति तस्य प्रतिषेधरूपत्वात् । तथाहि - अघटो न भवतीति घटः पर्याया एव सन्ति न तु द्रव्यं तावदेकं किञ्चित् पर्यायादर्थान्तरमस्ति द्रव्यार्थिकनयावधारितधौव्यवस्तुनिरासेन भेदा एव वस्तुत्वेन प्रतिज्ञायन्ते । तस्मात् — पर्यायार्थिकनयस्याऽस्तित्वम् समुपलभ्यमानाऽयः शलाकासदृश भेदकलापव्यतिरेकेण द्रव्य - स्याऽनुपलम्भात् अथच--रूपादिव्यतिरेकेण मृद्रव्यमित्येकवस्त्वाश्रयिका चाक्षुषप्रतीतिर पलपितुमशकया २९४ घोरान्धकारपटलाच्छन्नप्रदेशस्थायिनो मृद्रव्यमात्रावलम्बनमसत्यमितिवक्तुं न शक्यते, तस्माद भिन्नमेकं द्रव्यमस्ति, अभेदज्ञानविषयत्वात् । नेयमभेदप्रतीतिभ्रमात्मिका सम्भवति ? प्रेक्षावद्भिः पौनः पुन्येन तथैवोपलभ्यमानत्वात् । तस्मात् -- उत्पादव्ययव्यतिरिक्तः कश्चिद् ध्रौव्यांशोऽपि अस्ति पर्यायार्थिक नय अपवाद स्वभाव वाला है, क्योंकि अन्य का निषेध अपवाद है । पर्यायार्थिक नय किसी वस्तु का प्रतिपादन दूसरी वस्तुओं का निषेध करके करता है; क्योंकि उसका स्वरूप निषेध करना है । जो अघट नहीं है वह घट है; इस प्रकार पर्यायों का ही अस्तित्व है । पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय के द्वारा समर्थित धौव्य का निषेध करके भेदों को ही वास्तविक स्वीकार किया जाता है । इस कारण पर्यायार्थिक नय का अस्तित्व हैं । उपलब्ध होने वाले लोहे की शलाकाओं के सदृश भेद - समूह को छोड़कर द्रव्य की उपलब्धि नहीं होती, किन्तु मृत्तिका द्रव्य रूप आदि से भिन्न एक वस्तु है, इस प्रकार एक वस्तु को विषय करने वाली चक्षुजन्य प्रतीति का अपलाप नहीं किया जा सकता । अघट नहीं है वह घट है, इसप्रकार पर्यायोंकाही अस्तित्व है । पर्यायों से पृथक द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है । इसप्रकार द्रव्यार्थिक नय के द्वारा समर्थित धौव्य का निषेध करके भेदों को ही वास्तविक स्वीकार किया जाता है । इस कारण पर्यायार्थिकनय का अस्तित्व है । उपलब्ध होने वाले लोहे की शलाकाओं के सदृश भेद - समूह को छोड़ कर द्रव्य की उपलब्धि नहीं होती, किन्तु मृत्तिकाद्रव्य रूप आदि से भिन्न एक वस्तु है, इस प्रकार एक वस्तु को विषय करने वाली चक्षुजन्य प्रतीति का अपलाप नहीं किया जा सकता । घोर अन्धकार के समूह से व्याप्त किसी प्रदेश में रहे हुए मृत्तिका द्रव्य का जो स्पर्शनेन्द्रियजनित ज्ञान होता है, वह मृत्तिका द्रव्य को ही विषय करता है । उसे किस प्रकार असत्य कहा जा सकता है ? इस कारण एक अभिन्न द्रव्य का अस्तित्व अवश्य सिद्ध होता है । अभिन्न द्रव्य का अस्तित्व न होता तो अभेद का ज्ञान भी न होता । अभेद का यह ज्ञान भ्रमात्मक नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धिमान् जनों को बार- बार ऐसा ज्ञान होता है । इस कारण उत्पाद और व्यय से भिन्न एक धौव्य अंश भी है, जिसके कारण द्रव्य एक या अभिन्न प्रतीति का विषय होता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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