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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. २५
सतो लक्षणनिरूपणम् २९३ अनाविर्भूतं सत् तिरोहितत्वादुपलब्धिगोचरो नोपजायते । एवं भावविप्रकर्षादन्यत् किमपि परकीयात्मनिष्ठमतिज्ञानादिविकल्पजातं परमाण्वादिवर्तिच रूप-रस-गन्धस्पर्शादिपर्यायकलापजातं विद्य मानं सदपि नोपलभ्यते विविक्षितोपलब्धेरन्या-उपलब्धिरनुपलब्धिरुच्यते न तु-उपलब्ध्यभावोऽनुपलब्धि अलीकरूपाऽनुपाख्यस्याऽभावस्य प्रत्याख्यातत्वात् ।
___भावस्यैव च कथञ्चिदभावशब्देनाऽभिधीयमानत्वात् तस्मादुपलब्धिकारणशालिन एवाऽनुपलब्धिर्भवति नाऽन्यथेति । तथाच नाऽभावप्रतिषेधमात्रं भवति अपितु-भावरूपोऽपीति सिद्धम् एवञ्च–ध्रौव्यं द्रव्यं भवनलक्षण मयूराण्डकरसवद् विद्यमानसर्वभेदबीजं निर्भेद-देशकालक्रमव्यङग्यभेदं समरसावस्थम्-एकरूपम् अभिन्नमपि भेदप्रत्यवमर्शेन भिन्नवदाभासते भवनाश्रयाच्च भाविनिविशेषे भावत्वं भवति ।
अन्यथा—भावीविशेषोभाव एव न भवेत् भवनव्यतिरेकित्वात् भाविनो विशेषस्य तदव्यतिरिक्तरूपाभावात् तत्स्वरूपवद् भावत्वं भवति तदव्यतिरिक्तरूपत्वाच्च तथासति भवनमात्रमेवेदं सकलंवर्तते भेदाभिमताः पुनरेता वृत्तयस्तस्यैव सन्ति न तु जात्यन्तराणि । पर्यायार्थिकनयः पुनरपवाद
कोई वस्तु काल के विप्रकर्ष के कारण आविर्भूत नहीं रहती। वह तिरोहित होने से उपलब्धि के योग्य नहीं होती। कोई कोई भाव संबंधी विप्रकर्ष के कारण उपलब्धि के गोचर नहीं होती, जैसे परकीय आत्मा में रहा हुआ मतिज्ञान आदि तथा परमाणु आदि में रहा हुआ रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि पर्यायों का समूह विद्यमान होता हुआ भी उपलब्ध नहीं होता है। किसी एक उपलब्धि से भिन्न दूसरी उपलब्धि ही अनुपलब्धि कहलाता है, उपलब्धि का अभाव अनुपलब्धि नहीं है, क्योंकि पहले ही कहा जा चुका है कि अभाव कोई शून्य रूप-निस्स्वरूप वस्तु नहीं है, बल्कि भाव ही कथंचित् अभाव शब्द के द्वारा प्रकट किया जाता है। इस प्रकार जिसकी उपलब्धि के कारण विद्यमान हों, उसकी उपलब्धि होती हैं । जिसकी उपलब्धि के समस्त कारण न हो और इसलिए जो उपलब्धि के योग्य न हो, उसकी उपलब्धि नहीं होती । इससे सिद्ध हुआ कि अभाव केवल प्रतिषेध रूप नहीं है बल्कि भावान्तर रूप ही होता है ।
ध्रौव्य का अर्थ है द्रव्य या होना । मयूर के अंडे के रस के समान उसमें भेदों का बीज विद्यमान रहता है, मगर वह स्वयं भेदविहीन है । देश-काल-क्रम से उसमें भेद व्यक्त होने योग्य होता है। वह स्वयं समरस अवस्था में रहता है, एक रूप में रहता है; और अभिन्न होता हुआ भी भेद प्रतिभासी होने के कारण भिन्न-सा प्रतीत होता है । भवन का आश्रय होने से भावी विशेष में 'भावत्व' हैं । अन्यथा भावी विशेष भाव ही न कहलाए, क्योंकि वह भवन से भिन्न है । भावी विशेष उससे अभिन्न रूप है अतएव उसके स्वरूप के समान भाव ही है और उससे अभिन्न रूप वाला है । इस प्रकार यह जो भी कुछ है वह सब भवन मात्र ही है। भेद रूप में प्रतीत होने वाली ये समस्त वृत्तियाँ उसी की हैं, भिन्न जाति की नहीं।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧