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________________ २९२ तत्त्वार्थसूत्रे भवति तथाहि-घटस्य प्रागभावो मृत्पिण्डरूपो भवति, घटोत्पादात् प्रागघटस्याऽभावोऽनाविर्भूतधटाकारो मुत्पिण्डइवेति, भावः । प्रध्वंसाभावोऽपि-घटादेः कपालाद्यवस्थाप्राप्तिरूप एव, विनाशरूः प्रध्वंसोऽवस्थान्तररूपत्वाद् वस्तुस्वभावं न परित्यजति कविवर्णनरचनामात्रप्रापितनटान्यत्ववत् कञ्चुकादिसंस्थानमात्रपरित्यागिसर्पवद्वा एवम्-स्तम्भ-कुम्भादीनां घटादीनां वान्योन्याभावोऽपि परस्परव्यतिरेकरूपत्वात्- अवस्तुरूपो न भवति, सकलवस्तुन एव तथाविधत्वाऽभ्यु पगमत्वात् । अन्योन्याभावोऽपि वस्त्वेव भवति । नाप्यत्यन्ताभावः कश्चिदलीकरूपोऽनुपाख्यो भवति, सवेथाऽनुपाख्यायमानस्वरूपावगमाऽभावात् । तस्मात्-सर्वाण्येव वस्तूनि द्रव्यक्षेत्र-काल-भावभेदापेक्षाणि कदाचित् प्रत्यक्षादिनोपलम्यन्ते प्रमाणेनाऽवधार्यन्ते । कदाचिदुपलब्धानि सन्त्यपि द्रव्यादिविप्रकर्षात्पुनर्नोपलभ्यन्ते, मति ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमकारणसमुदाये सत्यप्युपयोगे किञ्चित् द्रव्यजातमन्यात्मपरमाणुव्यणुकादिवैक्रियशरीरादि च विद्यमानमपि नोपलभ्यते । तस्य द्रव्यस्य तेषाञ्चाऽनुपलब्धौ तथाविधपरिणाम एव हेतुरितिबोध्यम् । दिवसे तारकादयः धान्यर।शौ प्रक्षिप्तं धान्यञ्च नोपलभ्यते किञ्चित्क्षेत्रविप्रकर्षाद् दूरात्यासन्नसव्यवधानस्थितं सदपि वस्तु नोपलम्भविषयतामासादयति । एवमन्यत्किमपि वस्तुकालविप्रकर्षात्करके किसी वस्तु की भिन्नता का प्रतिपादन करता है । अभाव केवल निषेधमात्र-शून्यरूप नहीं है, जैसे-घट का प्रागूभाव मृत्पिण्ड है । घट की उत्पत्ति से पहले जो घट का अभाव है, वह मृत्पिण्ड ही है जिसमें घट पर्याय की उत्पत्ति नहीं हुई है । घट का प्रध्वंसाभाव उसके ठीकरे हो जाता है । प्रध्वंसाभाव भी वस्तुस्वरूप ही है, घट की कपाल अवस्था हो जाना ही उसका प्रध्वंस है । इसी प्रकार स्तंभ कुंभ आदि एक ही द्रव्य की विभिन्न पर्यायों में जो परस्पर भिन्नता होती है; वह अन्योन्याभाब है; जैसे स्तंभ, कुंभ नहीं है और कुंभ स्तंभ नहीं है । यह भी अवस्तु रूप -शून्य- नहीं है । क्योंकि जितनी भी वस्तुपर्यायें हैं, सब अन्योन्याभाव रूप है । इसी तरह एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य रूप न होना अत्यन्ताभाव है । यह भी एकान्त निरुपाख्य नहीं है, जैसे चेतन अचेतन नहीं है और अचेतन चेतन नहीं है। __सभी वस्तुएँ द्रव्य, क्षेत्रकाल और भाव की अपेक्षा रखती है । वे कभी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उपलब्ध होती है और कभी उपलब्ध होकर भी द्रव्य आदि के विप्रकर्ष के कारण उपलब्ध होने योग्य नहीं रहती । मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम रूप कारण समूह के विद्यमान रहने पर भी आत्मा परमाणु, द्वयणुक आदि तथा वैक्रिय शरीर आदि विद्यमान रहते हुए भी उपलब्ध नहीं होते है इसका कारण उस वस्तु का परिणमन है। दिन में तारे नज़र नहीं आते । धान्य की राशि में डाला हुआ धान्य उपलब्ध नहीं होता । कोई-कोई वस्तु क्षेत्र की दूरी के कारण, अत्यन्त समीपता के कारण अथवा व्यवधान (आड़) आ जाने के कारण भी उपलब्ध नहीं होती है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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